Tuesday, January 18, 2011

"माँ का ऋण '

माँ का ऋण

आज भी बहुत सी जगह पर लड़की के घर(ससुराल)में न ही कुछ खाया जाता है नही वहां से कुछ लिया जाता है जहाँ तक बन सके लड़की को दिया ही जाता है माँ बाप के घर से |
अभी संकरान्ति पर मेरी चचेरी ननद ने मुझे पूरा सुहाग का सामान ,साड़ी,अपने भैया को कपड़े आदि दिए |मैंने उन्हें बहुत मना किया की यह पर्व तो नन्द भानजो के देने का है उनसे लेने का नहीं ?
तब उन्होंने मुझे ये लोक कथा सुनाई |गाँव में एक एक घर में माँ और दो बेटो का परिवार रहता था आपसी मतभेद के बाद घर के दो हिस्से हो गये |माँ बारी बारी से दोनों बेटे के पास रहती दोनों के घर में गे भैंस थी खूब दूध होता था
एक दिन माँ को दूध पीने की इच्छा हुई उसने अपने बड़े बेटे से कहा- बेटा मुझे भी थोडा दूध दे दो पीने के लिए ?
बेटे ने कहा -माँ बच्चो के लिए है फिर कहा छोटे के घर जाओ !वहा. तो बहुत दूध है |
माँ भी छोटे के घर गई (क्योकि बड़े बेटे के घर की बारी थी उसके घर में रहने की ?सो बाहर ही आंगन में बैठी रही )
वही से आवाज दी बेटा आज मुझे थोडा दूध दे दो ..
छोटे ने कहा- माँ आज तो गाय ने दूध दिया ही नहीं ?
(जबकि माँ ने आंगन में बैठे बैठे आवाज सुनी गाय दुहने की )
(लोककथाओ को कहने का अपना अंदाज होता है पूरे एक्शन के साथ अपनी लोक बोली में )
माँ को इतनी ग्लानी हुई अपने आप पर वह उठी और पास ही कुए में अपनी जान दे दी |
अब यह लोक कथा है और आज भी हमारे समाज में इन लोक कथाओ के आधार पर ही व्रत उपवास ,दान धर्म किये जाते है सो माँ का कर्ज उतारने लिए पहले सास को फिर माँ को सारा सामान दिया जाता है |
चूँकि मेरी काकी सास नहीं है इसलिए मुझे माँ की जगह रखकर उन्होंने मेरी ननद ने मुझे ये सम्मान दिया |
मैंने जीजी से पूछा?किन्तु इसमें (इस कहानी )तो लड़के का दोष है फिर आप मुझे दे रही है |
उन्होंने कहा - मेरा भी तो माँ के प्रति कुछ कर्ज है |
आगे उन्होंने कहा - अगर पति कोई दान धर्म करता है तो पत्नी को उसका आधा पुण्य मिलता है सो जीजाजी के हाथो उन्होंने ये सब दिलवाया |
और अगर पत्नी दान आदि देती है तो सारा पुण्य उसे अकेले ही मिलता है पति उसका भागीदार नहीं होता |मै इसी सोच में हूँ क्या हम माँ का कर्ज कभी उतर सकते है क्या ?
क्या ये हमारे मन का बोझ कम करने के लिए ऐसी लोक कथाये गढ़ी जाती है ?
और
कुछ इस तरह भी क्या कर्ज नहीं बढ़ा रहे?
अभी किछ दिन पहले shahr me रात में व्यस्ततम बाजार के बीच जाना हुआ जहा देखा प्लास्टिक का ढेर लगा है और कुछ गाये उनका भरपूर सेवन कर रही है |
और ये उसी इलाके की है जहाँ के लोग गायों की रक्षा करने का संकल्प किया जाता है ,गोशालाओ के लिए चंदा एकत्र किया जाता है, हिन्दू धर्म की दुहाई दी जाती है और गाय को माता का दर्जा दिया जाता है |
क्या यहाँ भी हम माँ के कर्ज को उतारने का मन का बोझ ?हल्का करते है |

पुन :-पिछले दोदिन से इस पोस्ट को पोस्ट करने का प्रयास कर रही हूँ |कभी बिजली कभी नेट की समस्या |और गायको प्लास्टिक के ढेर में से खाना न मिलने की एवज में प्लास्टिक खाते हुए फोटो तो अप्लोड हो ही न सका बहुत कोशिश के बाद भी |असल में गायों को प्लास्टिक खाते देख मन बहुत ही द्रवित हो गया |दरअसल ये कचरे के प्लास्टिक नहीं थे बकायदा दुकानदारो द्वारा फेके गये पेकिंग के प्लास्टिक थे |कोशिश तो यही रहती है की सब्जी भाजी का को पोलिथिन में भरकर न फेंका जाय|क्योकि भाजी के छिलकों के साथ पोलीथिन भी गाय खा जाती है |

15 टिप्पणियाँ:

राज भाटिय़ा said...

शोभना चौरे जी बहुत सुंदर संदेश मिला आप के लेख से, मां वाला किस्सा पध कर दिल दुखी भी हुया, चाहे वो कहानी ही हे, लेकिन आज के युग मे यह भी होता हे, बाकी यह रीति रिवाज इसी लिये बने हे, ओर गाय वाली बात बहुत अच्छी लगी हमारे धर्म के ठेके दार, ओर गाऊ को माता कहने वाले जब इस मां का दुध दोहते हे उस समय तो यह गाऊ मां बन जाती हे,्किसी को नही दिखता कि यह भुखी हे बेचारी, ओर चारए की जगह जहर खा रही हे, बाद मे बेचारी मां की तरह थक्के खाती हे,धन्यवाद

Manoj K said...

लोक कथाओं का अपना पूरा संसार है. यह लोक कथा पहली बार पढ़ी. हाँ, गायें आज लाचार हैं और उनकी दशा दयनीय है.

गौशालाओं की स्थापना, चंदा एकत्र करना सब कुछ सिर्फ़ एक व्यापार बन गया है.

हमारे शहर में भी मकर संक्रांति पर गायों को हरा चारा खिलाया जाता है, बहुत लोग चारा गायों के आगे डाल कर चल देते हैं, पर गायें सुबह से ही इतना खा चुकी होतीं हैं और काफी हरा चारा व्यर्थ हों जाता है. अगर यह हरा चारा एक दिन की बजाय हफ़्तों में खिलाया जाये तो ..

प्रवीण पाण्डेय said...

गायों की यह दुर्दशा, क्या हो गया है मेरे देश को?

shikha varshney said...

शोभना जी ! लोक कथाये और प्रथाए ,रिवाज़ हमारे जीवन को संतुलित और सुगम बनाने के लिए बनाये जाते हैं परन्तु हमने उन्हें अपने स्वार्थ स्वरुप ढाल लिया है और उसी अनुसार बस ढोए जाते हैं.

rashmi ravija said...

इस लोककथा के माध्यम से सच उजागर कर दिया...यही है,आज का सच. अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए सब रिश्ते हैं....
रोटी खिला कर बुरे ग्रह का निस्तार करना हो तो गाय की खोज की जाती है...पर उनकी देख-भाल की किसी को कोई चिंता नहीं

anshumala said...

माँ का कर्ज तो सच में हम नहीं उतार सकते सिर्फ उसकी अच्छे से देखभाल कर प्रयास कर सकते है | गयो की स्थिति तो इससे भी ख़राब है जिस तरह आज उन्हें इंजेक्शन लगा लगा कर दूध निकला जाता है वो भी कम अत्याचार नहीं है बाकि तो सब बस धर्म के नाम पर धंधा ही करते है |

Shubham Sadh said...

Pranam Taiji, vastav me hamari jo lok kathaen hain ye hamare jivan me kafi ehmiyat rakhti hain aur hume apne riti rivajon kisliye manana chahiye-ye hume sikhati hai..!

डॉ. मोनिका शर्मा said...

लोककथा के ज़रिये हकीकत सामने रखी आपने...... बहुत सुंदर

अजित गुप्ता का कोना said...

शौभना जी, एक पोस्‍ट में कई सवाल उठाए गए हैं। लेकिन जवाब में एक ही दे रही हूँ। समाज में कई प्रकार की विसंगतियां होती हैं, जैसा व्‍यक्ति वैसी ही करणी, लेकिन जो चिंतक हैं वे लोक-शिक्षण के लिए ऐसी कथाओं और परम्‍पराओं का चलन प्रारम्‍भ करते हैं। इसी श्रंखला में गायों को भी माँ माना गया है और हिन्‍दु धर्म में अनुयायी इनके रक्षण का उपाय करते हैं। यदि समाज में अनाचार हो रहा है और उसका उपाय ना हो तो समाज दूषित हो जाएगा। जो चन्‍दा लेकर कुछ कार्य करते हैं वे कुछ तो कर रहे हैं। इसलिए उनकी आलोचना से बेहतर है कि हम उनकी आलोचना करें जो अपनी गायों का दूध निकालने के बाद सड़कों पर पोलिथीन खाने के लिए छोड़ देते हैं।

ZEAL said...

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जहाँ तक कर्ज का सवाल है , सिर्फ माँ का ही नहीं होता । पिता का , भाई का, मित्र का , चिकित्सक का, शिक्षक का । अलग अलग समय और परिस्थियों में बहुत से जाने अनजाने , अपिरिचित भी एक जीवन-दान जैसा दे जाते हैं। क्या हम उनका कर्ज उतार सकते हैं ? लेकिन उनके पुण्य कर्मों का फल उन्हें किसी और के द्वारा प्राप्त होता ही है। क्यूंकि इश्वर है जो सारा लेखा जोखा रखता है।


माँ अपना फर्ज निभाती है , उसकी ममता उसके बच्चों पर कर्ज नहीं हो सकती । माँ के रक्त से सिंचित होकर बड़ा हुआ बच्चा , जिसकी हर श्वास में माँ का दिया हुआ प्यार और संस्कार समाहित है। वो उसी के सहारे तो जीवित है। उसे कर्ज समझकर लौटा देगा तो जीवित रहने की ऊर्जा कहाँ से मिलेगी।

जब वही संतान बड़ी होकर माता पिता बनती है तो माँ से जो प्यार मिला था , उसे अपनी संतान पर लुटाती है । यही क्रम चलता रहता है । इसी क्रम में माँ कभी कभी अपनी संतान की कोख में भी आती है। कौन कब किसकी माँ है , ये पता नहीं।

इसलिए हर बड़े-छोटे को समुचित प्यार और सम्मान मिले तो कोई गिला, शिकवा और कर्ज नहीं रह जाता।

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ZEAL said...

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शोभना जी ,

२००७ में ५८ वर्ष की आयु में मेरी माँ का देहांत हो गया था।

देश विदेश कहीं भी रहूँ , इतनी बड़ी दुनिया में कहीं माँ के आँचल जैसी शीतल छाँव मिलती है , तो वो आपके ब्लॉग पर आकर।

माँ का कर्ज कैसे उतरेगा , नहीं मालूम । लेकिन मेरी शोभना जी को इश्वर अच्छे स्वास्थ्य , ढेरों खुशियों और सभी अपनों के प्यार से भरा-पूरा रखे , यही प्रार्थना रहेगी।

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ZEAL said...

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प्लास्टिक थैलों का बहिष्कार करना चाहिए। ये biodegradable नहीं होते तथा बहुत से पशुओं की जान ले रहे हैं। घर से थैला लेकर चलना चाहिए जिसमें खरीददारी की वस्तुएं रखने के लिए प्लास्टिक bags की आवश्यकता न पड़े।

जब मैं भारत में थी, तो सब्जी आदि किसी भी चीज़ के लिए घर से लेकर गए bags का ही प्रयोग करती थी ।
यहाँ थाईलैंड में तो सब शौपिंग malls में ही होती है। जहाँ १०० फीसदी लोग प्लास्टिक bags ही इस्तेमाल करते हैं। लेकिन यहाँ भी एक scheme है। जो लोग प्लास्टिक थैले न उपयोग कर अपने घर से लाये थैले का उपयोग करते हैं , उन्हें " Green points " मिलते हैं और बिल में एक प्रतिशत की छूट भी मिलती है।

हम इस scheme को follow करते हैं और पर्यावरण में सहयोग के साथ पैसों की बचत भी कर लेते हैं।

आभार।

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Kailash Sharma said...

बहुत सुन्दर सन्देश..लोक कथा में जो कुछ था वह आज का भी सत्य है..गौ सेवा एक सिर्फ़ नारा बन कर रह गया है...आभार

vandana gupta said...

कोई भी इस ॠण से उॠण नही हो सकता।

शोभना चौरे said...

आप सभी लोगो का बहुत बहुत धन्यवाद जो आपने आपने बहुमूल्य विचार रखे |
@अजितजी
मेरा मतलब किसी की भी आलोचना करने का नहीं है लेकिन मै बता दू की जिस जगह पर मैंने ये द्रश्य देखा वहां के लगभग सभी दुकानदार वे ही अनुयायी है जो गाय माता की रक्षा के लिए चंदा एकत्रित करते है और वही लोग
प्लास्टिक का कचरा खाते हुए गाय देखकर क्यों नहीं उस जगह पर रक्षा करते है गायों की ?

@ zeal
आपने प्लास्टिक के उपयोग के सुझाव बहुत ही अच्छे दिए है किन्तु आज आपने देश में चारो और प्लास्टिक ही प्लास्टिक का धडल्ले से इस्तेमाल होता है |कितने ही नियम बनाये है प्लास्टिक के मानको के ?किन्तु सब्जी बेचने वालो ,ठेलो वालो के पास,मंदिरों के बाहर वही थैलिया मिलेगी जो सरकार को ओर से प्रतिबंधित है अब प्रश्न ये उठता है की जब प्रतिबंधित है तो उत्पादन कहाँ से और क्यों होता है ?क्या वहां प्रतिबन्ध नहीं है |
किसी जमाने में जब आपने यहाँ भी इन प्लास्टिक की थैलियो का उपयोग शुरू नहीं हुआ था तब हर घर से थैला ही प्रयोग होता था कपड़े से बनाई गई थैलियो का |
मै तो बिलकुल साधारण गृहणी हूँ ,आपने मुझे प्यार से इतना सम्मान दिया है उसके लिए मै ह्रदय से आभार मानती हूँ |