Wednesday, December 30, 2009

"खुशियों कि राम राम "

सूरज रोज अपने नियत समय पर होता उदय होता है वो कभी नये साल का या केलेंडर का इंतजार नहीं करता अनवरत उसे तो चमकना ही है
तो हम भी क्यों इस एक दिन ही शुभकामनाये दे और ले ?
हर रोज के उगते सूरज के साथ ही नियमित शुभकामना इस सारे संसार को |

लो फिर नया साल गया
बीती बाते
बीते साल कि,
जो आदत बन गई
जैसे कि
दाल का कम खाना

बिन मौसम बरसात का आना

चाहते हुए भी
पड़ोसी के बेटे कि शादी के रिसेप्शन के
गिद्ध भोजन को निहारकर
११ बजे रात तक भी दूल्हा दुल्हन के
स्टेज पर आने तक
लिफाफे को पकडे रह जाना |

टेलीविजन के रियलिटी शो के
नकलीपन को देखकर
जानकर भी उसे रियल मान लेना |

शादियों में डी.जे.के शोर का
विरोध करते करते
खुद उस नाच में
झूमकर शामिल हो जाना|

अपने को देश के कर्णधार
समझने वाले नेताओ का
देश के ज्वलंत मुद्दों
से परे हटकर
अपने ही रास रंग में खो जाना |

हाँ
इन सबसे अलग
ये बात खास
ये बात खास महत्वपूर्ण
ब्लॉग के जरिये
नये पर अपने से लगते
अपनों से जुड़ जाना

इस अपने इस परिवार को
नये साल कि
नई सुबह की
सूरज की नई
पहली किरन की

प्यारी सी
राम राम







|

Saturday, December 12, 2009

शिक्षा की लय

कमरे में टी.वि पर t-20 क्रिकेट का बढ़ता हुआ शोर .घर के बाहर बच्चो का चिल्लाना ,अपनी माँ का आंचल पकड़कर जिद करते हुए रोना और मन में उठते अनेक द्वंदों के बीच बरसो से नियमित करती हुई आरती कि लय का टूट जाना मुझे विचलित कर गया |क्या मुझ्मे इतना भी धैर्य नहीं कि ,या मेरी समस्त पूजा मुझे इतना भी नहीं सिखा सकी कि मै अपने आप को कुछ देर तक शांत रख पाऊ |फिर मेरा मनन शुरू हो गया आखिर किस बात ने मुझे विचलित किया ,टी. वि ने बच्चो के शोर ने ?पर ये तो रोज ही होता है |दिन भर कि दिनचर्या पर नज़र डाली तो सोचने लगी आज फोन पर किस्से बात कि ?किसने अपनी बहू के बारे क्या कहा ?किसने अपने घर के किये कामो को गिनाया ?इसी पर पर मुझे ध्यान आया अभी अभी जो नई काम करने वाली बाई लगी थी पता नहीं ये १०वि थी या ग्यारवी बाई अब तो बाई लगते छूटते ऐसा लगने लगा है कि हममे कितनी कमिया है कि कोई बाई टिकती ही नहीं जैसे आजकल शादिया नहीं टिकती कोई ठोस कारण नहीं होते शादी न टिकने के पर फिर भी नहीं टिकती शादी ,वैसे ही बाई छूटने के कोई ठोस कारण नहीं होते |
हाँ तो नई बाई को दो दिन हुए थे काम करतेहुए इस बार मैंने सोच लिया था उसके दुःख दर्द नहीं पूछूंगी उसके दुःख दर्द कब मेरे हो जाते है और वो मुझे ऐसे ही छोड़कर दूसरो को अपना दुःख सुनाने चली जाति है मेरी जैसी मम्मीजी को ?
पर अपनी आदत से लाचार उसके रहन सहन को देखकर मेरी जिज्ञासा का कटोरा भर चुका था|
पिनअप कि हुई बढ़िया साडी ,ब्यूटी पार्लर से कटाए हुए बाल ,आइब्रो करीने से सवरे हुए जब वो सुबह आती तो एक बार मै उसे देख अपने आप को देखने लगती औए मन ही मन तुलना करने लगती और खीज हो आती अपनी बढती उम्र पर |
आखिर मैंने पूछ ही लिया इसके पहले कहाँ काम करती थी? वहां क्यों छोड़ा ?
कितने ही बार टी।वि पर समाचारों में देखा था कि घरेलू नोकर रखने के के पहले अच्छे तरह से जाँच पड़ताल कर ले पुलिस में भी सूचना दे दे |अब पुलिस में सूचना करना तो अपने बस कि बात नहीं? पर कम से कम बातो से ठोंक बजा तो ले बस इसी के चलते मै अपनी डयूटी पूरी कर रही थी |

मेरे प्रश्नों के उत्तर उसने बड़ी तत्परता से दिए -कहने लगी मैंने अभी तक कही कोई काम नहीं किया है पहला ही काम है |
मैंने पुछा ?तो अब तक कैसे घर चलाती थी |
वो कहने लगी -अभी तक मै साँस ससुर के साथ रहती थी अब उनसे अलग हो गई हूँ ,घर का किराया दो हजार रूपये है १००० आपके यहाँ से मिल जावेगे १००० का एक घर और है |
और बाकि घर का खर्चा कैसा चलेगा ?
वो तो मेरे पति अच्छा कमाते है वो चला लेगे |
तुम तो पढ़ी लिखी लग रही हो /
हा मै बी. ऐ .पढ़ी हूँ |
तो कोई स्कूल में क्यों नहीं पढ़ा लेती ?आजकल तो गली गली में स्कूल है |
उपदेश देने की आदत से मजबूर होकर मैंने पुछा ?
हाँ पढ़ाती थी न ? कुर्सी के नीचे पोछा लगाते हुए वो बोली -पर वहां सुबह ७ बजे से जाना होता है और दोपहर दो बजे वापसी होती थी और सिर्फ ९०० रूपये मिलते थे बच्चे भी दादा दादी के पास रह लेते थे |अब जब अलग हो गई हूँ तो इन्हें कौन संभाले ?
पर तुम अलग क्यों हुई ?मैंने फिर कुरेदा |
मुझसे नहीं होता रोज सुबह शाम साँस ससुर का खाना बनाना , उनके कपड़े धोना उनकी बंदिशे मानना|
जब से अलग हूँ अच्छा है कोई रोक टोक नहीं है अभी तो मुझे आपके सामने वाले घर में भी खाना बनाने को बुला रहे है १५०० का काम है |
इतना कहते कहते उसका पोछा पूरा हो गया, फटाफट हाथ धोये और वो बोली -अच्छा मम्मीजी आज मुझे ५०० रूपये अडवांस दे दो मुझे गैस कि टंकी लेनी है |
मै कुछ बोल भी नहीं पाई बस दिमाग में घूम रहा था १२वि बाई कहाँ धुन्धुगी ?
५०० का नोट निकलकर उसे दे दिया |
तब से ही शायद विचार उमड़ घुमड़ रहे थे .अपने बचपन के सारे गुरु याद आ गये |
और शिक्षा कि लय बिगडती देखकर मेरी आरती गाने कि लय भी टूट चुकी थी ????/,

Tuesday, November 10, 2009

तो मै क्या करू?

मेरे पति देव कहते है की तुम्हारे सोचने से दुनिया थोडी न बदल जावेगी ?
पर क्या करू ?जब उनके साथ स्कूटर पर बैठ कर जाती हूँ ब्रेक ठीक करवाने रुकते है और एक सात या आठ साल का बच्चा आकर खुशी खुशी आकर ब्रेक ठीक कर देता है और हथेली पर रखे सिक्के को देखकर खुश होता है और में सोचने लगती हूँ ये बच्चा स्कूल जाता है कि नही?
मेरे पडोस में एक आठ साल की बच्ची दो साल के बच्चे को सुबह आठ बजे से लेकर पॉँच बजे तक बच्चे को खुशी खुशी सभालती है और खुशी खुशी ५०० का नोट महीने के आखिर में घर ले जाती है तो मै उसकी पढ़ाई के बारे में सोचने लगती हूँ |
पंकज सुबीर जी कि " बेजोड़ " कहानी" ईस्ट इंडिया" की तर्ज पर चायनीज सामान के बल पर चीन हमारे घर में पाव पसार रहा है और हम खुशी खुशी हमारे घर, त्योहारों पर रोशन कर रहे है तो मै सिर्फ़ सोचती हूँ कि ये रौशनी क्या हमारी सच्ची खुशी है?
अपनी छटवीसंतान को अपने गर्भ में (पॉँच बेटियों के बाद बेटा ही होगा इसी आस में )लिए मेरी (घमंड )कामवाली बाई महीने भर बर्तन मांजने के बाद २०० रूपये खुशी खुशी ले जाती है तब मै सोचती हूँ परिवार नियोजन कहाँ तक सफल हुआ है ?
नित नये नेताओ के द्वारा किए गये घोटाले ,विधान सभा में शपथ लेते और उनके माइक हटाते विधायको कि खबरों को दिखाने वाले टी .वि .चैनल शाम को मौज मस्ती करने वाले खोजी पत्रकार खुशी खुशी ऐशो आराम पा जाए ?तो मै सोचती हूँ क्या ?भागवत गीता सिर्फ़ उपहार देने के लिए ही छपती है |
८२ डिब्बो कि रेलगाडी वाला केक जब अडवानी जी के लिए बनाया जाता है , और अपने जन्मदिन पर जब ख़ुशी ख़ुशी केक काटते है और अपने संघ कि विचारधारा वाले लोगो को खिलाते है तो मै सोचने लगती हूँ कि घर घर हिदू धर्म का प्रचार करने वाली विचारधारा विदेशी परम्परा का मोह क्यो ? छोड़ नही पाती |
मुझे सोचता देखकर शायद आप भी कह सकते है !बहुत हो गया अब सोचना! कुछ करो भी ? अब आप ही बताये मै क्या करू?

Saturday, November 07, 2009

गुनगुनी धुप

गुलाबी गुलाबी ठण्ड शुरू
हो गई है हाथ खोलने के दिन गये
हाथ बांधने के दिन आगये |पॉँच बजते ही सूरज देवत अपना रूप समेटने लगते है , मजदूरों के जलते चूल्हे साँझ की झुरमुट में सूरज की जगह ले लेते है |और तभी मन में कुछ ख्याल आने लगते है |

अब आई है ठण्ड
अपने पंख फैलाकर
घर की चोखटे सजी है
धुप के टुकडो से |
दादी बैठी खटिया पर ,
मालिश का तेल लेकर |
दादाजी कम्बल ओढे बैठे है ,
टी वी के सामने |
नन्हा पानी को देखकर ,
सर पर रजाई ओढ़कर
फ़िर सो गया |
पापा टी वी के सामने बैठकर ,
हाथ में पेपर लेकर
चाय पर चाय गुड़क रहे है |
दीदी फटाफट तेयार हो गई है
कॉलेज जाने के लिए
माँ फिरकनी सी
कभी पराठे सेंकती ,कभी हलवा बनाती |
तरस गई है
, कुनकुनी धुप के लिए
मै कब तक बचूंगा ,
पढाई करने के बहाने बैठा रहकर,
नहाकर नही गया तो ,
क्लास के बाहर कर दिया जाऊंगा,
तब बरामदे से फ़िर ठंडी हवा
मेरे
कानो को चूमेगी,
इससे अच्छा है
मै इस ठण्ड का स्वागत
कर लूँ
उसके पंखो को छूकर \

Tuesday, October 20, 2009

चाँद और दीपक

मैं कोई हस्ती नही
कि प्रणाम लूँ सबसे
अमावास कि घोर रात्रि को
उज्जवल करने मेंभी ,
मैं असमर्थ
तब तुम ही , अपनी कपकपाती लो से
अंधेरे को दूर करते हो
और इसी लिए सदैव
पूजनीय बन जाते हो तुम
लाख बिजली कि लडिया जगमगाए
पर सुदूर एक गाँव में ,
ज़िन्दगी का आभास कराते हो तुम
और उसी दीप को प्रणाम करते हुए ,
दीपावली के इस पर्व पर ,
अनेक शुभकामनाएं और बधाई

Thursday, October 08, 2009

बस कुछ यूँ ही

कभी कभी मन असहज हो जाता है, तब बहुत कुछ उमड़ घुमड़ कर आता है बेतरतीब सा उसे समेटना नही चाहता मन |
तो बस कुछ यू ही अहसास ताजा हो जाते है .........

वो छोड़ जाते है रोनके
हम तो शून्य भी साथ ले जाते है |

कहने को जिन्दगी हंसती रही
पर आँखों में आंसू तैर जाते है |

चुराते है दिल वो ऐसे
धडकन के लिए भी मोहताज हो जाते है |

अब तू ही बता दे आसमा
किस गली में वो ठहर जाते है |


माना की चाँद आज रौशनी दे गया
सितारे ही सदा साथ निबाह जाते है \

बरसो बरस साथ देने का वादा करने वाले
कुछ ही पल में अकेला छोड़ जाते है \

Sunday, October 04, 2009

एक निर्धन ब्राह्मण " लघु कथा"

आप सभी लोगो का ह्रदय से धन्यवाद करती हूँ जो आपने मेरी लिखी कहानी "सुख की पाती "को पसंद किया और अपने अमूल्य विचारो से उसे सम्मान दिया |ये कहानी मैंने तीन साल पहले लिखी थी |
आप सभी के प्रोत्साहन और मार्ग दर्शन से प्रेरित होकर एक लघु कथा पोस्ट कर रही हूँ |


"एक निर्धन ब्राह्मण "

पंडित विष्णु प्रसादजी के घर के सामने बिलकुल नई सी दिखने वाली कार पिछले दो दिनों से खडी थी |अधिकतर तो पंडितजी को हमेशा अलग अलग तरह कि कारों में आते जाते देखा है , जिन्हें भी पूजा करवाना वे ही आकर ले जाते|और समय पर घर छोड़ जाते |
गली के बाहर से हार्न बजता और पंडितजी अपनी सजी धजी वेशभूषा रेशमी धोती, रेशमी कुरते में हाथ में पोथियों का झोला लेकर निकल पड़ते |अडोसी पडोसी भी उन्हें देखने का लोभ संवरण नही कर पाते |कहाँ तो पंडितजी एक मटमैली धोती पहने हाथ में छाता लिए (जो कि कोई यजमान कि तेरहवी में दान में मिला था )पसीना पोंछते पोंछते पैदल आते जाते थे ,बडी मुश्किल से सत्यनारायनजी कि कथा ! या कभी कभी कोई विवाह के मौसम में दो चार विवाह करा देते थे| |नही तो पुरे समय मन्दिर में कलावा बाँधने से ही परिवार कि गुजर बसर होती थी |पर धीरे धीरे उन्होंने दान में मिली हुई चीजो को जबसे दोबारा उपयोग करना और न काम में आने वाली वस्तुओ को दुकानों में देना शुरू किया, दिन ही पलट गये |अच्छी सफेद धोती पहनकर स्कूटर पर जाना शुरू किया तो घर के बाहर यजमानो कि भीड़ ही लगी रहती |दो दो मोबाइल रखने पड़ गये |मंदिर में कलावा बाँधने के लिए एक असिस्टेंट रख लिया |श्रीमती तुलसी विष्णुप्रसाद भी एक से एक नई साडिया गहने पहने भजनों में जाती और ढोलक कि थाप पर जोर जोर से भजन गाती |
अब तो पंडितजी ने एक ज्योतिषी से गठबंधन कर लिया जितने भी ग्रहों के जाप हो सकते है ?वो सब ज्योतिषीजी यजमान को बता देते और पंडितजी के नाम का सुझाव दे देते |
यजमान को कहाँ इतनी फुर्सत थी ,?
एक के दो करने से? वो सीधे पंडितजी को कॉल करते और अग्रिम राशिः दे जाते. जाप और पूजा करने कि| पंडितजी कि तो चल पडी थी .|अब तो कुल मिलकर उनके पॉँच सहयोगी हो गये थे |
पडोसी शंकर प्रसाद और उनकी पत्नी पारवती दोनों स्कूल में शिक्षक शिक्षिका थे ,उन्हें भी लगने लगा ये सब छोड़कर पंडिताई शुरू कर दे तो अच्छा रहे आठवी पास पंडितजी ने कितनी उन्नति कर ली है |
आते जाते लोग कार को प्रश्न वाचक निगाहों से देखते और कभी कभी ?दिखने वाले पंडितजी से हाल चाल पूछकर चल देते |
आखिर शंकर प्रसाद ने पंडितजी को पूछ ही लिया ?
क्यों पंडितजी? ये कार यहाँ कैसे खडी है?
आने जाने वालो को चलने में कठिनाई होती है |जिनकी है उन्हें कह क्यों नही देते? कि अपनी गाड़ी ले जाये |
अरे नही भाई! ये तो अब यही रहेगी ये मेरी कार है | पंडितजी ने थोड़े रुआब से कहा --
आश्चर्य से शंकर प्रसादजी ने देखा? पंडितजी कि तरफ |
हाँ भाई मेरे वो यजमान है न? जिन्हें ओवर ब्रिज बनाने का ठेका मिला है, उन्होंने ही मुझे भेट में दी है |अभी चार दिन पहले तो भूमि पूजा करवाई है |
मेरी गाढ़ी कमाई कि है |आप ऐसे क्यों देख रहे है ?मैंने कोई रिश्वत में थोड़े ही ली है ?
शंकर प्रसादजी को अपनी पूरी शिक्षा डग्गम डग दिखाई देने लगी ............

Wednesday, September 30, 2009

"सुख की पाती" कहानी अन्तिम भाग




जब मै
शादी होकर इस घर में आई तो दो महीने बाद ही मुझे गाँव से शहर भेज दिया भेज दिया |किसी की पहचान से मुझे एक कन्या शाला में शिक्षिका के पद पर नौकरी मिल गई ,और शुरू हो गई मेरे विवाहित जीवन की और संघर्ष की शुरुआत |सुबह ११ बजे तक ९लोगो का खाना बनाना कपडे धोना बर्तन साफ करना और स्कूल जाना , बजे तक वंहा कन्याओ से माथा पच्ची करना फ़िर घर लोटकर फ़िर चूल्हे का साथी बन जाना छोटे मोटे घर के काम करना |
इसके साथ ही हमारे ससुर जी की चाची जो बुजुर्ग थी जिन्हें हमारी रक्षा के लिए हमारे साथ रहती थी उनका छुआ छूत का कार्यक्रम ,बिना प्याज लहसन का खाना बनाना ये सब भी उसमे शामिल होता ननदों का मूड होता तो वे काम में हाथ बँटाती अन्यथा पढाई का बहाना बनाकर कन्नी कट लेती |इसी सबमे जूझते हुए हर्ष का आगमन हुआ खूब खुशिया मनी ,कितु मै कभी दो पल उसे गोदी में लेकर नही बैठी उसकी पर दादी और समय समय पर गाँव से आकार दादी ने ही अपना अधिकार समझा |
हर्ष के बाबूजी तो बडो के लिहाज से उसे कभी गोद में भी नही ले पाए |इस बीच मुझे स्कूल से बी.एड .करने का आदेश हुआ इसके लिए मुझे शहर से बाहर जाना था, अब ज्वलंत प्रश्न ?सबको ये अहसास था की उसके बाद मेरी तनखा बढेगी |तो मुझे इजाजत दे दी गई ?
पर हर्ष दादियों के पास ही रहा मुझे मन मसोसकर जाना पडा हाँ ! तब तक मिली मेरे गर्भ में गई थी वो मेरे लिए खुशी की बात थी |और इसी खुशी के साथ बी.एड .कर मिली को गोद में लेकर लौटी उसी संसार में |वही चक्र चलता रहा लेकिन मैंने इसे अपना ध्येय बना लिया था और स्कूल के साथ ट्यूशन भी करने लगी हां, अब चूल्हे की जगह गैस ने ले ली थी तो मुझे थोडी सी सुविधा हो गई थी नंदे भी कॉलेज जाने लगी थी बडी दीदी की तो शादी भी हो गई थी छोटे देवर शहर से बाहर पढ़ने चले गये थे |बड़ी दादी भी चल बसी थी |एक बर्तन साफ करने वाली भी रख ली थी |लेकिन मुझे और ज्यादा काम करने की इच्छा होती |कभी कम से कोफ्त नही हुई |हर्ष के बाबूजी कहते भी; अब तुम्हे काम करने की जरूरत नही है अब तो सब ठीक चल
रहा है |किंतु मै और ज्यादा लड़कियों को ट्यूशन देने लगी |मेरे दोनों बच्चे बुआ औरचाचा के सानिध्य में रहने लगे |एक एक करके सभी नन्द देवरों की शादी हो गई मैंने भी अपने स्कूल के कार्यकाल में पदोन्नति ली कई सम्मान पाए|हर्ष के पापा भी अपने रिटायर्मेंट के करीब रहे थे |
हर्ष अपनी पढ़ाई में अव्वल रहा और आई .आई टीकरके गुडगाँव में नौकरी पर चला गया |
मिली ने भी अपनी पढाई के साथ संगीत की की शिक्षा जारी रखी |और फ़िर संगीत कला केन्द्र में शिक्षिका हो गई और अपने सहकर्मी के साथ शादी कर ली घर में बहुत हंगामा हुआ, पर मै अड़ गई और फ़िर धूमधाम से मिली और अरुण की शादी कर दी| जबपैत्रक सम्पति के हिस्से बंटवारे हुए तो मेरे हिस्से मेरी यही कर्म स्थली आईजो मेरी खट्टी मीठी यादो की साक्षी रही है;मैंनेउस घर में चूने सीमेंट की एक भी ईट नही जोड़ी,; और ही इन्हे जोड़ने दी |कभी कभी ये कहते भी तुम बहुत जिद्दी हो ;मेरे इस स्वभाव से इन्हे चिढ भी होती |उन दिनों जब घर में जब चारो और से खर्च की मांग होती ये मेरे लिए एक साडी लेकर आए थे ,कहने लगे तुम उन चार साडियों को पहनकर ही एक साल से स्कूल रही हो ,लोग कहेगे -जोशीजी अपनी पत्नी को क्या साडी भी नही लाकर दे सकते ?
पैदल स्कूल आती जाती हो; तांगे के पैसे नही दे सकता ;परन्तु एक साडी तो दे ही सकता हूँ |
कितु मेरे मन में क्रोध था; या पता नही क्या?मैंने इनकी दी हुई साडी नही पहनी |
शायद मै अपनी आवश्यकताओ से लड़ते लड़ते उनपर जीतने की आदि हो गई थी |
आज भी वो साडी वैसे ही मेरे सूटकेस में रखी है |कितनी ही नई साडिया है , वो साडी मेरे साथ सभी जगह घूमती है| मेरी आँख में आंसू गये |
शालिनी फ़िर सामने खड़ी है शायद वो सोच रही है ,इनको तो इतना सुख है जब जबान हिलाए तब सब कुछ हाजिर !
इन्हे तो मेरी तरह कोई काम भी नही करना पड़ता |साब और मैडम आगे आगे बिछते है इन्हे क्या दुःख है ?
उसने फ़िर पूछा ?
माजी आपने नाश्ता भी नही किया ?
कुछ नही बेटी आज मेरा मन नही है |
ये ले जा; और खिचडी चढ़ा दे केशव भी उठ जावेगा |
अच्छा माँजी कहकर वो चली गई
नाश्ते से मुझे वो दिन याद गये जब हर्ष पेट में था मुझे सुबह सुबह उलटी होती थी ;और भूख लगती थी चूल्हे पर रोटी सेकते सेकते उबकाई आती थी |ये तो फेक्ट्री चले जाते थे रोटी खाने का मन नही होता था; घर में कोई पूछता नही था |दादीजी अपनी पूजा में रहती थी दीदी लोग को कहाँ समझता था ?तब पास में रहने वाली चचेरी जिठानी एक कप दही चीनी दे जाती थी, तो वो मुझे अम्रत लगता था क्योकि घर में तो सब्जी रोटी दाल ही मुश्किल से जुटाई जाती थी तो दही की कौन कहे ?
आज इस घर में बीसियों चीजे पड़ी है अचला, हर्ष को हाथ में देती हूँ पर उनको खाने का समय नही है |
पता नही आज मुझे क्या सूझी ?मै वो साडी निकलकर देखने लगी ,फ़िर अचनाक फोटो अलबम निकालकर देखने लगी |
शालिनी आकर पूछने लगी ?
माजी नीचे से सब्जी ले आऊ ?फ़िर मुझे एल्बम देखते हुए कहने लगी ?माँ जी बाबूजी कितने स्मार्ट लग रहे है बाबूजी को क्या हुआ था ?
उन्हें कहाँ कुछ भी तो नही हुआ था ?जीवन में कभी बीमार भी नही पड़े ही कभी किसी से एक गिलास पानी ही माँगा|
फेक्ट्री से घर फ़िर ओवर टाइम ?पुरे परिवार की जरूरते पूरी करना भाई बहनों के लिए अपना जीवन लगा दिया ,हा भाइयो ने भी उनको उतना ही सम्मान दिया और उनकी लाज रखी |आज सब अपने अपने घर सुखी है |अपनी पैत्रक जायजाद का विस्तार किया खेत खरीदे एक इंच भी जमीन नही बेचीं |एक दिन हमने शाम का खाना खाया प्रायः सबके फोन जाते बाते करते संतुष्ट हो जाते ,उस दिन हर्ष का फोन आया पापा मेरा प्रमोशन हो गया है; मुझे मुंबई जाना होगा
कम्पनी फ्लैट ,कार सब सुविधाए देगी ये बहुत खुश हो गये इन्होने मुझे आवाज दी मैंने हर्ष से बात की फोन रखा ही था और देखा? ये सीना दबाये बैठे थे मैंने इन्हे लिटाया डॉ को बुलाया तब तक तो ये जा चुके थे रिटायर होने में दो महीने बाकि थे सबको सुखी देखकर मानो इनकी आत्मा तृप्त हो गई थी |हर्ष को आने में १२ घंटे लगे |हर्ष के साथ रहने की तमन्ना लिए ही चले गये |
शालिनी अब जा तू सब्जी ले |
मैंने अल्बम बंद किया इतने में केशव भी उठकर मेरे पास गया अपनी मीठी जुबान से उसने' दादी 'कहा तो मैंने सारा अतीत भूलकर उसे सीने से लगा लिया |
मेरे इस असीम सुख की कोई कीमत है क्या?
रात ही बड़ी का भाभी का फोन आया था? दीदी हमारे पास थोड़े दिन रहने जाओ जिंदगी भर हाय हाय करती रही !अब तो आराम से रहो मै जानती हूँ, पहले भी उन्होंने मेरी छोटी बहन शानू को कहा था - दीदी के बहू बेटा दोनों ही इतना कमाते है ?
क्या वो लोग नौकर नही रख सकते क्या ?
जो दीदी को भी इस उमर में खटना पड़ता है ?इन्ही भाभी के घर एक बार बच्चो को गर्मी की छुट्टियों मे लेकर गई थी तो हर्ष मिली को सुबह सुबह चाय देती जबकि अपने और शानू के बच्चो को गिलास भर दूध देती क्योकि शानू बडे घर की बहू थी |हर्ष और मिली को तो चाय भी मिली होती तो वे कुछ मांगते अपने पिता की तरह ,लेकिन मै ये अपमान सहन कर सकी; उसके बाद विवाह के मौको को छोड़कर कभी मायके मे पाँव नही रखा |रात हंसकर फोन पर कह दिया हाँ भाभी जरुर आउंगी |
केशव मेरी गोद मे बैठा खेल रहा था ,इतने मे शालिनी भी सब्जी लेकर गई .......शालिनी आज शाम को पाव भाजी बनायेगे | थोडी तयारी कर लेते है |सब्जिया वगैरह काट करके रख लेते है , तुम्हारी मैडम को बहुत पसंद है !आते जाते थक जाती है एक तो दिन भर काम;ऊपर से ट्रेफिक वो चाहकर भी नही बना पाती तुम मटर छीलो तब तक मै केशव को खिचडी खिलाती हूँ और मैंने केशव को गोद मे उठा लिया ओर केशव खुश होकर कहने लगा मै दादी के हाथ से खिचरी (खिचडी ) खाऊँगा |..................
shobhana chourey

Tuesday, September 29, 2009

"सुख की पाती "

कहानी भाग


केशव
को जैसे ही बिस्तर पर सुलाया ,शालिनी ने तुंरत कहा मांजी आप नाश्ता कर लीजिये!
वो
जबसे इंतजार में थी की मै केशव को गोदी से उठाकर कब बिस्तर पर सुलाऊ ताकि वो मुझे नाश्ता दे ;और आगे का काम निबटाये |वैसे तो शालिनी की नियुक्ति केशव को सभालने की ही थी ,हर्ष और अचला ने घरमे सारी सुविधा के सामान जुटा लिए थे |अलग अलग काम के लिए अलग अलग नौकर थे |मुझे कुछ भी काम करना नही होता था ,किंतु दोनों की हार्दिक इच्छा यही थी की केशव दादी की छत्रछाया में पले ,मै जैसी बच्चे को जैसी शिक्षा दू उन्हें मान्य था |आज सुबह ही केशव के स्कूल एडमिशन को लेकर भयंकर बहस छिड गयी थीऔर दोनों तय नही कर पा रहे थे की केशव को कौनसी स्कूल में डाले ,दोनों को आफिस में उनके सहयोगी राय देते की" फ़ला स्कूल अच्छा है 'वहा टिफिन भी नही देना पड़ता ,खाने से लेकर खेलने ,घुमाने फिरने की सुविधा ,बस सुविधा (सिर्फ़ पढाई को छोड़कर )सारी व्यवस्था स्कूल वाले ही कर देते है |अपने को तो बच्चे को सुबह तैयार करके भेजना है ,बस यही सुझाव दोनों को भी अच्छा लगा था फ़िर मेरा निर्णय जानने के लिए बारी बारी से मेरी और देखने लगे |हलाकि मै इस विषय में उचित निर्णय देने की स्थिति में नही थी ,क्योकि ये शहर मेरे लिए सर्वथा नया था बहस के दोरान मैंने सुना कि इंग्लिश मीडियम तो सभी स्कूलों में है ,किंतु विनय मन्दिर में अंग्रजी के साथ साथ मात्रभाषा को भी उतनी ही प्राथमिकता से पढाया जाता है |
मुझे
ये बात बहुत अच्छी लगी और फ़िर टिफिन भी घर से ले जाना होता है ये तो अति उत्तम |मुझे खुशी थी कि इस बहाने केशव घर कि बनी ताजी और पोष्टिक चीजे भी खाना सीख लेगा ,वरना मुझे याद है,कि पिछली बार ट्रेन में यात्रा कर रही थी तब कुछ कान्वेंट स्कूल के बच्चे और उनकी शिक्षिकाए एजुकेशनल टूर पर मुंबई से बाहर जा रहेथे उसमे उनके भोजन का भी ठेका दिया गया था जिसमे उन बच्चो को रात के खाने में एक - एक बर्गर दिया गया था |कुछ बच्चो ने सोचा ये नाश्ता है? ,खाना तो बाद में आएगा मगर वो इंतजार ही करते रह गये |
शिक्षिकाओ
ने अपने घर से लाया टिफिन खोला और फटाफट खाने लगी|
ओपचारिकता के नाते शिक्षिका ने बच्चो को पूछा ?
बच्चो ने थेंक्यु मैम कहा ;और अपने पास में रखी हुई चोकलेट खाई और सो रहे |
सुबह जब नाश्ता मिला -पोहा जलेबी ?तो सारे बच्चे एक दुसरे का मुह देखने लगे ?पोहा जलेबी कभी भी उन्होंने नही खाया था |सेंडविच भी था पर वो एक ही था और उन्हें वही खाने की आदत थी |
आख़िर एक बच्चे ने अपनी मैम से कह ही दिया -मैम हमसे १००० रु और ज्यादा ले लेते कितु हम खाना तो अच्छी तरह से खा लेते |
न ही? मैम के पास इसका उत्तर था ?और ही उन्हें समझने की जरुरत थी |
हाँ मुझे प्रेरणा मिल गई की आगे कही केशव भी ऐसा प्रश्न कर दे ?
मैंने हर्ष से कहा -बेटा पैसा है तो इसका ये मतलब नही की हम अपने प्राथमिक कर्तव्यो से पीछा छुडा ले |
उन्होंने विनय मन्दिर में केशव के एडमीशन की सहमती दे दी |
अभी तो केशव ढाई साल का है , माह के बाद वो स्कूल जाएगा मै सोचती और तरह तरह की योजनाये बनाती \
की स्कूल जाने के पहले मुझे उसे काफी तैयार करना पडेगा ?
अचला ने कहा था - माँ जब आप यह है तो इसे प्ले स्कूल नही भेजेगे |
आप तो पुरी पाठशाला है पुरे ३५ साल स्कूल में अध्यापिका रही है वो भी आदर्श शिक्षिका ?
मै उसे समझती बेटी -तब के माहौल और आज के माहौल में बहुत अन्तर है |
अचला कहती -दो और दो चार तब भी होते थे और अब भी |
मै निरुत्तर हो जाती |
मै नित नये प्लान बनाती जो बचपन अपने बच्चो के साथ नही जी पाई उसे अब भरपूर जीना चाहती हुँ |
बस एक कसक बाकि है अगर केशव के दादाजी होते तो कितने आनन्दित होते |क्योकि वे भी कभी अपनी नौकरी और घर की जिम्मेवरियो के बीच कभी अपने बच्चो को वो लाड प्यार नही दे पाए जिनकी हमेशा उन्हें तडप रहती |कुछ समय का अभाव कुछ आँखों की शर्म कुछ आर्थिक हालात ?
आज सब कुछ है पर मेरे साथ मेरे सुख बाँटने वाले नही है |
मैंने नौकरी कोई शौक के लिए नही की थी ,मेरी पढाई ने मुझे नौकरी के लिए विवश किया |जब शादी होकर इस घर में आई छोटा शहर था ,ग्रेजुएट थी मै उस जमाने में ग्रेजुएट होना बहुत बड़ी बात थी |घर में ननद देवर थे साँस ससुर गाँव में रहते थे देवर ननदों ने प्राथमिक शिक्षा पुरी की थी आगे की पढाई के लिए उन्हें शहर में आना था सब जैसे मेरा ही इंतजार कर रहे थे ,अभी तक कमाने वाले सिर्फ़ हर्ष के पापा ही थे गाँव में खेती बाडी भी थी, पर पिताजी ने लगकर कोई काम नही किया \खाना पीना हो जाता था बस पर शहर में तो रहने के लिए नगद पैसा चाहिए जीवन बसर के लिए, पढाई के लिए |
भला हो पूर्वजो का उनकी दूरंदेशी सोच का जिन्होंने शहर में भी घर खरीद रखा था अपने वंशजो के लिए |

क्रमशः