Thursday, June 09, 2016

karmth mahila

कर्मठ महिलाओं की श्रंखला में आज  आई है मौसी
वैसे तो ये मेरी दादी लगती है पर माँ के मायके के गांव के पास ही इनका मायका भी है तो बचपन से हम इनको मौसी ही कहते है ,
कितने ही लोगो के जीवन में संघर्ष आये और उन्होंने अपनी जीवन यात्रा पूरी की पर मौसी ने अपने अपने जीवन के ५५  वर्ष बाद अपनी संघर्ष यात्रा शुरू की ,वैसे उसके पहले भी उनका जीवन कोई आसान नहीं था।
गांव में ब्याही फिर पति की नौकरी शहर में कचहरी में लगी तो परिवार के सरे बच्चों की पढ़ाई की जिम्मेदारी उनपर थी अपनी सिमित आय में अपनी कार्य कुशलता और मेहनत से सब कुछ निभाया सब बच्चे पढ़े और अच्छे पदों तक पहुंचे उनकी शादिया न हुई उनके होने दो बेटे दूसरे शहर में और इस इस मकान में  मंझला बेटा बहू ,कुछ दिन ठीक चलता रहा पर मौसी को लगने लगा की साथ निभने वाली नहीं है। तब उन्होंने अपनी गृहस्थी गाँव में बसा ली।
दादा की पेंशन बहुत थोड़ी पर उनका सिद्धांत की बेटो से एक पैसा नहीं लेंगी ,गाँव के उजड़ घर (क्योकि गांव में कुछ साल पहले आग लगी थी)को ठीक किया जो कुछ खेती थी उसमे अपने बल से मेहनत की काम करवाती खुद खेतों में भी जाती। पक्के घर से आकर कच्चे घर और गांव का जीवन एक चुनौती जिसे उन्होंने परिवार के सामने खुद ही रखी और खुद ही उसे पूरा किया। आज ३० साल हो गए गांव में रहते हुए ,गांव के घर को उसी रूप में रखकर मेंटेन किया है। खेतों में खूब फसल पक्ति है। गेहूं ,सब तरह की डाले , कपास उस क्षेत्र में उसे सफेद सोना  कहते है। राय मेथी मिर्ची धनिया मूंगफली टिल सब सारा अनाज मसले साफ करके अपने ३ बेटे एक बेटी को पैक करके भेजती है..
शहर जाने के पगले सरकारी योजना के तहत उन्होंने सिलाई डिप्लोमा लिया था तो घर का साडी सिलाई खुद ही करती ,और उस समय जब परिवार नियोजन करना गांव में आपरेशन करवाना टेडी खीर थी पैर जन्होंे कई महिलाओं को साथ लेकर इस योजना का लाभ लिया।
साथ ही गांव के बच्चों को स्कूल जाने के लिए प्रेरित करना ,उन्हें संस्कार सीखना महिलाओं को पूजा पाठ
सिखाना धार्मिक किताबें पढ़ना ,जबकि वो खुद सिर्फ कैशा  ५ तक पढ़ी थी।
गांव की बहुत सी रूढ़वादी बातो से , हटकर उनका वैज्ञानिक स्वरूप सामने लाना।
आज ८५ साल की अवस्था में भी उनकी दिचर्य में कोई फर्क नहीं
सुबह ५ बजे से लेकर रत ८ बजे तक काम करते रहना। घर में  पलने वाले जानवर गाय बैल की देख भल से लेकर अख़बार पढ़ना साफ सफाई ,खेती वाले घरों में अनेक काम होता है भले ही नौकर करटे हो उनके साथ बराबरी से काम करना।
हम अभी १५ दिन रहे तो हमे भी दोपहर में सोने नहीं देती कहती
हमारे गांव में दोपहर का सोना वर्जित है ,
कुछ फोटो दे रही हूँ ,
गाय का दूध निकलती मखन बनती घी बनती और आँखों के रोग में काम में लती जिसको भी जरुरत हो
इतनी उम्र में कोई चश्मा नहीं ,जितनी देर में मई कुर्सी से उठती वो कई फिट चली जाती।
मितव्ययता ,सादगी ,उनके जीवन का आधार है।
मौसी इसी तरह अपने कई बसंत देखे और हम उनका कुछ अंश सीखे।
उन्हें सादर प्रणाम।









Sunday, May 08, 2016

kramth mhilaye

बहुत दिनों से मन में इच्छा थी की हमारे आसपास की उन कर्मठ और संघर्ष रत महिलाओं की मिडिया ,या कही और चर्चा न हुआ हो हमारे आसपास की चाहे वो अपने ही परिवार की नानी ,दादी ,या पड़ोस की नानी , दादी ,बुआ ,मौसी ,चाची,, ताई ,मामी ,अपनी सास ननद हो ?जिन्होंने आम िंदगी से हटकर संघर्ष किया हो जीवन के लिए उन्हें हम सामने  लाये।
उसी श्रंखला में आज की एक कड़ी है
कर्मठ महिला
गुलाब माँ
मातृत्व दिवस के अवसर पर उन्हें नमन


आज वो जिन्दा होती तो करीब 120 साल की होती
13 बच्चों की माँ बनाकर छोड़ गया और न जाने कहाँ चला गया था उसका पति ?गाव में बीमारी फैली कुछ बच्चे उसी चपेट में आये कुछ ने पहले ही जन्म के कुछ घण्टो कुछ दिनों के बाद आखिरी साँस ले ली थी।
कुल 3 बचे थे दो बेटी और एक बेटा बड़ी बेटी की शादी कर दी बेटा कुछ पढ़कर रेलवे में नोकरी पा गया ,छोटी बेटी 12 साल की को लेकर शहर आ गई ।
13 वर्ष लगते उसकी भी शादी कर दी
गुजारे के लिए शहर के प्रतिष्ठित वकील के घर खाना बनाने का काम करने लगी और उन्होंने अपने बड़े से मकान में एक कमरा
दे दिया रहने को।
छोटी बेटी उसी शहर में ब्याही थी 6 महीने बीतते ही उसके पति की मृत्यु हो गई बाद में पता चला पहले से उसको कोई गंभीर बीमारी थी जिसका पता सबको था ।खूबसूरत विधवा बहू को अपने घर में कैसे रखे ?माँ के पास भेज दी गई ,जहाँ रहती वहां विधवा बेटी के साथ रहना असहय था
तब मेरे दादाजी जो कभी कभी गाँव से आते कचहरी के काम से उन्हें सजातीय लीगों से पता चला की अपने समाज में एक महिला की ऐसी स्थिति है तब हमारे बाड़े में उनको रहने को कमर दिया ।साथ ही विधवा बेटी की पढाई भी जरी रखी उन्हें टीचर ट्रेनिग करवाई उस जमाने में 7वि
कक्षा के बाद ही टेनिंग होती थी और फिर वो सरकारी स्कूल में शिक्षिका बन गई जब तक उनकी माँ उन वकील साहब के घर खाना बनाने का काम करती रही ।
आज वो बहनजी भी होती तो 84 साल के लगभग उनकी उम्र होती अपना कार्यकाल ईमानदारी से पूरा करके राष्ट्रपति द्वारा प्रदत्त श्रेष्ठ शिक्षिका का अवार्ड भी पाया ।
बाल विधवा बेटी के साथ और अगर बेटी बहुत ही सुंदर हो तो दोनों माँ बेटी का जीवन कितना कष्टमय रहा है वो मैंने देखा है।
उस समय तो मेरी उम्र बहुत कुछ नही समझ पति थी ,आज जब सोचती हूँ चलचित्र की भांति उनका जीवन मेरी आँखों के सामने आ जाता है।
कई सालो बाद "गुलाब माँ ;"हाँ यही नाम था उनका,
उनके पति को भी याद आई और पता ठिकाना ढूंढते ढूंढते आ गए अधकार जताने पर स्वाभिमानी गुलाब माँ ने उनको घर में न घुसने दिया और मोहल्ले के लोगो ने भी उनका साथ दिया।जब भी वो आते झगड़ा करते ,मुझे धुंधला सी याद है धोती कुरता और सर पर काली टोपी रहती।जिस दिन वो आते गुलाब माँ के घर अशांति पसर जाती माँ बेटी के बीच भी लड़ाई होती ।
पर गुलाब माँ उन्हें एक पैसा नही देती जिसके लिए वो आते ।
गुलाब माँ अपने उसूलो की पक्की थी ।पथरीले जीवन पर चलते चलते वो भी सख्त हो गई थी।
उनकी कला बेमिसाल थी ।जितने भी अख़बार के कागज के टुकड़े होते उन्हें उन्हें एकत्र करती उनकी लुगदी बनाती ।उस लुगदी से टोकनिया,
गुड़िया बनाती ।और जितना भी बाड़े में में वेस्ट मटेरियल मिलता ,हलवाई के घर से आये जलेबी सेव के कागज की पुड़िया के कागज ,तो लुगदी में डाल देती और उनमें बंधा हुआ धागा लपेट कर रख लेती ।उस धागे से गोदड़ी सिलती, गुड़िया के कपड़े सिलती ,अपना लहंगा (घाघरा ही पहनती)सिलती
अपना ब्लाउज(पोल्का)जिसमे पीच्छे सिर्फ डोरियाँ होती वो खुद ही बनाती और सूती ओढ़नी
पहनती। उनकी बनाई करीब 50 साल पुराणी ये गुड़िया आज भी मेरे पास है इसमें जो भी सामान उपयोग हुआ
उसमे एक पैसा भी भी नहीं लगा है।
अपनी खटिया खुद ही रस्सी से बुनती। अपने छोटे से घर जिसमे वो करीब ४५ साल रही कंचन बनकर रखा अपनी मेहनत से। उनका बनाया खाना सिमित साधनों वाला आज भी भुलाया नहीं जाता।
और भी बहुत सी बाटे है जो समय समय पर याद आती रहती है.
आज जब हम सर्वसाधनो से युक्त घरों में रहते है छोटी छोटी बातो में असन्तोषी हो जाते है तब गुलाब माँ बहुत याद आती है और जीवन को संबल मिलता है।