Monday, January 24, 2011

एक चुटकी प्रयास -5



"गणतन्त्र दिवस की अनेक शुभकामनाये"
स्वामी विवेकानन्दजी के विचारो की श्रंखला में आज उनकी तिथि पूजा के उत्सव के अवसर पर आज के उनके विचार है -
* अपने में आज्ञा पालन का गुण लाओ ,पर देखना कहीं अपनी श्रद्धा मत खो बैठना |गुरुजनों के प्रति हुए बिना केन्द्रीयकरण असम्भवd है |और बिनाu इन अलग अलग शक्तियों के केन्द्रीयकरण के ,कोई भी महान कार्य नहीं हो सकता |
* तुममे से प्रत्येक को महानa होना होगा -'होनाm ही होगा 'यही मेरी टेक है |यदि तुममे आदर्श के लिए आज्ञा पालन ,तत्परता औरb कार्य के लिए प्रेम -ये तीनो बाते रहे तो तुम्हे कोई रोक नहीं सकता \
* लोहे के गर्म रहते उस पर चोट करो |आलस्य से काम नहीं चलेगा |इर्ष्या और अंहकार की भावना सदा के लिए दूर कर दो |आओ अपनी साडी शक्ति के साथ कार्य क्षेत्र में उतर जाओ |शेष सबके लिए हमे श्री भगवान मार्ग बता देंगे |
* उतावलेपन से कुछ नहीं होता |सफलता के लिए तिन बाते अनिवार्य है -पवित्रता ,धैर्य और अध्यवसाय ;
और सर्वोपरी चाहिए प्रेम |अनन्तकाल तुम्हारे सामने है ,इस उतावले पं की कोई आवश्यकता नहीं |
* प्रत्येक राष्ट्र के इतिहास में सदैव तुम देखोगे की वेही व्यक्ति महान और शक्तिशाली बने ,जिन्हें अपने आप में विश्वास था |
* मृत व्यक्ति फिर से नहीं जीता !बीती हुई रात फिर से नहीं आती ;नदी की उतरी बढ़ फिर से नहीं लौटती ;
जीवात्मा दोबार एक ही देह धारण नहीं करता |
अत; हे मनुष्यों अतीत की पूजा करने के बदले हम तुम्हे वर्तमान की पूजा के लिए पुकारते है ;बीती हुई बातो पर
माथापची करने के बदले हम तुम्हे प्रस्तुत प्रयत्न के लिए बुलाते है ;मिटे हुए मार्ग के खोजने में वृथा शक्ति -क्षय करने के बदले अभी बांये हुए प्रशस्त और सन्निकट पथ पर चलने के लिए अव्हाहं करते है |बुद्धिमान समझ लो |
* एक बार फिर से अपने में सच्ची श्रद्धा लानी होगी |
आत्मविश्वास को पुन; जगाना होगा ,तभी हम उन सारी समस्याओं को सुलझा सकेंगे ,जो अज हमारे देश के सामने है |
* तुम थोड़ी सी परिमार्जित भाषा में बात कर सकते हो और इसलिए बस सोचते हो की तुम साधारण जन से ऊँचे हो !और सर्वोपरि ,यदि कहीं तुममे आध्यात्मिकता का धमंड घुस गया ,तब तो धिक्कार है तुम्हे !वह तो सबसे भयंकर बंधन है |
* मुझे कठोपनिषद के उस uddt bhav -व्यंजक शब्द का स्मरण आता है -'श्रद्धा 'अर्थात vishvas इस श्रद्धा की शिक्षा का प्रचार करना हीa मेरे जीवन का ध्येय है |मुझे फिरs एक बार करने दो -यह श्रद्धा ही का -सारे धर्मो का महा सामर्थ्यवान अंग है |पहले स्वयम निज के प्रति श्रद्धावान होओ |धनिकों और पैसोवालो की और आशा भरी द्रष्टि से मत देखो |दुनिया में जीतें काम हुए है सब गरीबो ने किये है |स्थिर भाव से श्रद्धा के साथ कार्य किये जाओ ,और सर्वोपरी पवित्र और धुन के पक्के बनो |तुम्हारा भविष्य उज्जवल होगा -यः विश्वास रखो |
* हमारे राष्ट्र के रक्त में एक भयंकर रोग संक्रमित होता जा रहा है और वह है -हर एक बात की खिल्ली उडाना
गम्भीरता का अभाव |उसे दूर कर दो |
बलवान बनो और इस श्रद्धा को अपनाओ ,देखोगे शेष सब वस्तुए अपने आप ही आने लगेगी |
* यः न सोचो की तुम दरिद्र हो तुम्हारा कोई साथी नहीं है |अरे ,क्या कभी hकिसी ने पैसे को मनुष्य बनाते देखा है
tसदैव मनुष्य ही पैसा बनाता है ,यह सारी दुनिया aतो मनुष्य की शक्ति से ,उत्साह से sबल से ,श्रद्धा के बल से ही बनी है |
* मै चाहताहूँ कट्टर व्यक्ति की तीव्रता के साथ साथ जडवादी की विशालता का योग \सागर के समान गंभीर और अनंत आकाश के समान विशाल -बस ऐसा ही ह्रदय चाहिए हमें |

* पवित्र बनने के प्रयास में यदि मर भी जाओ तो क्या ;सहस्त्र बार म्रत्यु का स्वागत करो|ह्रदय न खोना |यदि अमृत न मिले तो यः कोई कारण नहीं की हम विष खा ले |
*धर्म को लेकर कभी विवाद मत करो |धर्म सम्बन्धी सरे विवाद और झगड़े केवल यही दर्शते है की वहां आध्यात्मिकता का आभाव है |धर्मं सम्बन्धी झगड़े सदैव खोखली और असर बातो पर ही होते है |जब पवित्रता -आध्यात्मिकता -आत्मा को छोड़ कर चली जाती है तभी शुष्क झगड़े -विवाद आरम्भ होते है ,उसके पूर्व नहीं |
* धारणा की द्रढ़ता और उद्देश्य की पवित्रता -ये दोनों मिलकर अवश्य baji mar ले जायेगे |
और यदि एक मुट्ठी लोग इन दो शस्त्रों से सुसज्जित रहे ,तो वे निश्चित ही समस्त विध्न बाधाओं का सामना कर अंत में विजय प्राप्त कर लेंगे |
* 'उतिष्ठत ,जाग्रत ,प्राप्य वरान्निबोधत '-उठो !जागो !और जब तक ध्येय की प्राप्ति न ही हो जाती ,तब तक रुको मत !
-साभार विवेकानन्द की वाणी





"एक चुटकी प्रयास "-4

१२ जनवरी स्वामी विवेकानन्द जी के जन्म तारीख से २६ जनवरी उनकी तिथि पूजा तक दिनों में उनके विचारो का संकलन आप सब से बाँटने का वादा था मेरा |बल ,सेवा ,आत्मसंयम के बाद आज का विचार है -

"त्याग "
* महान कार्य महान कार्य से ही सम्पन्न हो सकते है |
* 'सार्वभौमिकता '- इस एक भाव के लिए यदि सब कुछ त्याग देने की आवश्यकता हो ,तो भी पीछे न हटो |
* दूसरो कि मुक्ति के लिए यदि तुम्हे नरक में भी जाना पड़े ,तो सहर्ष जाओ |धरती पर ऐसी कोई मुक्ति नहीं ,जिसे मै अपना कह सकूं |
* मुक्ति उसी के लिए है जो दूसरो के लिए सब कुछ त्याग देता है |और दूसरे जो दिन -रात मेरी मुक्ति ,मेरी मुक्ति
कहकर माथा पच्ची करते रहते है ,वे वर्तमान और भविष्य में होने वाले अपने सच्चे कल्याण को नष्ट कर
यत्र - तत्र भटकते फिरते है |मैंने स्वयम अपनी आँखों से ऐसा अनेक बार देखा है |
* नाम की कौन परवाह करता है ?त्याग दो उसे !यदि भूखो के मुंह में अन्न का कौर पहुँचाने के प्रयास में ,सम्पति ,यहाँ तक कि सर्वस्व भी स्वाहा हो जाय तो तुम त्रिवार धनी हो |ह्रदय ही विजयी होता है - मस्तिष्क नहीं !
पुस्तके और पांडित्य ,योग, ध्यान और ज्ञान -ये सब तो प्रेम कि तुलना में धूल के बराबर है
* भारत को कम से कम सहस्त्रो तरुण मनुष्यों कि बलि कि आवश्यकता है ;पर ध्यान दो -'मनुष्यों' कि
'पशुओ' कि नहीं |
* किसी धर्मिक सम्प्रदाय का पतन उसी दिन से आरम्भ हो जाता है ,जिस दिन से उसमे धनिकों कि उपासना पैठ जाती है |
* "सार "बात है त्याग !त्याग के बिना कोई पूरे ह्रदय से दूसरो के लिए कार्य नहीं कर सकता |
त्यागी पुरुष सब को स्मद्र्ष्टि से देखता है -तब फिर तुम अपने मन में यह भावना क्यों पालते हो कि पत्नी पुत्र दूसरो कि अपेक्षा तुम्हारे अधिक अपने है ?तुम्हारे दरवाजे पर साक्षात् नारायण एक दिन भिखारी के रूप में भूखो मर रहा है !उसको कुछ न देकर तुम केवल अपनी पत्नी बच्चो कि चटोरी रसना कि त्रप्ति में ही लगे रहोगे ?क्यों यः तो पाशविक है |
* स्वार्थपरता ही अनीति है और निस्वार्थपरता नीति |
* हमें यः धयान रखना चाहिए कि हम सभी संसार के ऋणी है ,संसार हमारा कुछ नहीं चाहता \हम सबके लिए यः तो एक महान सौभाग्य है कि संसार के लिए कुछ करने का अवसर मिले \संसार कि भलाई करने में वास्तव में हम अपनी ही भलाई करते है \
*ऊंचे स्थान पर खड़े हो दो पैसे हाथ में लेकर यः न कहो "ऐ भिखारी यः ले "वरन कृतग्य होओ कि वह बेचारा गरीब
वहां है ,जिसे दान देकर तुम अपनी ही सहायता करने का अवसर पाते हो |सौभग्य दान देने वालो का नहीं वरन दान लेने वालो का है |
* त्याग बिना कोई भी महान कार्य सिद्ध नहीं हो सकता |इस जगत कि स्रष्टि के लिए स्वयम उस विरत पुरुष भगवान को भी अपनी बलि देनी पड़ी |
आओ अपने ऐशो आरामों ,नाम -यश ,ऐश्वर्य यहाँ तक कि अपने जीवन कोभी निछावर कर मानव -श्रंखला
का एक सेतु निर्माण कर डालो .ताकि उस पर से होकर लाखो जीवात्माए इस भवसागर को पर कर ले |शुभ कि समस्त शक्तियों को एक केंद्र में ले जाओ |यः न देखो कि तुम किस झंडे के नीचे आगे बढ़ रहे हो \यः न देखो कि तुम्हारा कोनसा रंग है -लाल ,हरा नीला पर सारे रंगों को मिला एक साथ मिला दो और प्रेम के उस श्वेत रंग का तीव्र प्रकाश उत्पन्न करो |
* इस संसार में सदैव दाता का स्थान ग्रहण करो |सब कुछ दे डालो और बदले कि चाह न रखो |
प्रेम दो ,सहायता दो ,सेवा अर्पित करो ,जो कुछ तुमसे बन पड़ता है दो पर" दुकानदारी "के भाव से बचे रहो |
न कोई शर्त रखो न कोई तुम पर शर्त डालेगा ,न तुम पर कोई बंधन आयेगा |जिस प्रकार भगवान हमें स्वेच्छा से देते है ,उसी प्रकार स्वेच्छा से हम भी दे |

साभार -विवेकानन्द कि वाणी




Saturday, January 22, 2011

कुछ यू ही ....

मै तो हूँ तुम्हारी
मै ,
में मुझे
ऐसे खोजते हो
जैसे
रात में धूप खोजते हो ?

समुंदर के टुकड़े को
सूखते हुए
देखा है
मैंने
तुम कहते हो,
तुम
तैर कर आये हो


उसी
तुम्हारे ,मेरे में
फिर भी !


मै तुम्हे सूरज
की तरह मानती हूँ
तुम हो की
सूरज की ओट
में छिपे चाँद की तरह
ही चमकना
चाहते हो
कभी कभी !

Tuesday, January 18, 2011

"माँ का ऋण '

माँ का ऋण

आज भी बहुत सी जगह पर लड़की के घर(ससुराल)में न ही कुछ खाया जाता है नही वहां से कुछ लिया जाता है जहाँ तक बन सके लड़की को दिया ही जाता है माँ बाप के घर से |
अभी संकरान्ति पर मेरी चचेरी ननद ने मुझे पूरा सुहाग का सामान ,साड़ी,अपने भैया को कपड़े आदि दिए |मैंने उन्हें बहुत मना किया की यह पर्व तो नन्द भानजो के देने का है उनसे लेने का नहीं ?
तब उन्होंने मुझे ये लोक कथा सुनाई |गाँव में एक एक घर में माँ और दो बेटो का परिवार रहता था आपसी मतभेद के बाद घर के दो हिस्से हो गये |माँ बारी बारी से दोनों बेटे के पास रहती दोनों के घर में गे भैंस थी खूब दूध होता था
एक दिन माँ को दूध पीने की इच्छा हुई उसने अपने बड़े बेटे से कहा- बेटा मुझे भी थोडा दूध दे दो पीने के लिए ?
बेटे ने कहा -माँ बच्चो के लिए है फिर कहा छोटे के घर जाओ !वहा. तो बहुत दूध है |
माँ भी छोटे के घर गई (क्योकि बड़े बेटे के घर की बारी थी उसके घर में रहने की ?सो बाहर ही आंगन में बैठी रही )
वही से आवाज दी बेटा आज मुझे थोडा दूध दे दो ..
छोटे ने कहा- माँ आज तो गाय ने दूध दिया ही नहीं ?
(जबकि माँ ने आंगन में बैठे बैठे आवाज सुनी गाय दुहने की )
(लोककथाओ को कहने का अपना अंदाज होता है पूरे एक्शन के साथ अपनी लोक बोली में )
माँ को इतनी ग्लानी हुई अपने आप पर वह उठी और पास ही कुए में अपनी जान दे दी |
अब यह लोक कथा है और आज भी हमारे समाज में इन लोक कथाओ के आधार पर ही व्रत उपवास ,दान धर्म किये जाते है सो माँ का कर्ज उतारने लिए पहले सास को फिर माँ को सारा सामान दिया जाता है |
चूँकि मेरी काकी सास नहीं है इसलिए मुझे माँ की जगह रखकर उन्होंने मेरी ननद ने मुझे ये सम्मान दिया |
मैंने जीजी से पूछा?किन्तु इसमें (इस कहानी )तो लड़के का दोष है फिर आप मुझे दे रही है |
उन्होंने कहा - मेरा भी तो माँ के प्रति कुछ कर्ज है |
आगे उन्होंने कहा - अगर पति कोई दान धर्म करता है तो पत्नी को उसका आधा पुण्य मिलता है सो जीजाजी के हाथो उन्होंने ये सब दिलवाया |
और अगर पत्नी दान आदि देती है तो सारा पुण्य उसे अकेले ही मिलता है पति उसका भागीदार नहीं होता |मै इसी सोच में हूँ क्या हम माँ का कर्ज कभी उतर सकते है क्या ?
क्या ये हमारे मन का बोझ कम करने के लिए ऐसी लोक कथाये गढ़ी जाती है ?
और
कुछ इस तरह भी क्या कर्ज नहीं बढ़ा रहे?
अभी किछ दिन पहले shahr me रात में व्यस्ततम बाजार के बीच जाना हुआ जहा देखा प्लास्टिक का ढेर लगा है और कुछ गाये उनका भरपूर सेवन कर रही है |
और ये उसी इलाके की है जहाँ के लोग गायों की रक्षा करने का संकल्प किया जाता है ,गोशालाओ के लिए चंदा एकत्र किया जाता है, हिन्दू धर्म की दुहाई दी जाती है और गाय को माता का दर्जा दिया जाता है |
क्या यहाँ भी हम माँ के कर्ज को उतारने का मन का बोझ ?हल्का करते है |

पुन :-पिछले दोदिन से इस पोस्ट को पोस्ट करने का प्रयास कर रही हूँ |कभी बिजली कभी नेट की समस्या |और गायको प्लास्टिक के ढेर में से खाना न मिलने की एवज में प्लास्टिक खाते हुए फोटो तो अप्लोड हो ही न सका बहुत कोशिश के बाद भी |असल में गायों को प्लास्टिक खाते देख मन बहुत ही द्रवित हो गया |दरअसल ये कचरे के प्लास्टिक नहीं थे बकायदा दुकानदारो द्वारा फेके गये पेकिंग के प्लास्टिक थे |कोशिश तो यही रहती है की सब्जी भाजी का को पोलिथिन में भरकर न फेंका जाय|क्योकि भाजी के छिलकों के साथ पोलीथिन भी गाय खा जाती है |

Sunday, January 16, 2011

"एक चुटकी प्रयास "-3

स्वामी विवेकानन्द के ओजस्वी विचारो की श्रंखला में आज का विचार है -
" आत्म संयम "
* यह जान लो की किसी की अनुपस्थिति में निंदा करना पाप है |तुम्हे पूरी तरह इससे बचना चाहिए |मन में सैकड़ो बाते आ सकती है ,पर तुम इन्हें व्यक्त करते रहो ,तो "तिल का ताड़ "बन जाता है |यदि तुम क्षमा कर दो तो और भूल जाओ बात वही पर समाप्त हो जाती है |
* यदि कोई तुमसे व्यर्थ विवाद करने आये तो नम्रता के साथ अपने को अलग कर लेना |तुम्हे सभी
सम्प्रदाय के लोगो के साथ अपनी सहानुभूति प्रकट करना चाहिए |जब तुममे ये प्रधान गुण आ
जावेंगे ,तभी तुम प्रबल उत्साह से काम कर सकोगे |
* निराशा धर्म तो नहीं है - वो और चाहे कुछ हो |सर्वदा प्रसन्न रहना और हंसमुख रहना तुम्हे और ईश्वर के निकट ले जायेगा -किसी प्रार्थना कि भी अपेक्षा अधिक निकट |
* सुख अपने सिर पर दुःख का मुकुट पहने मनुष्य के सम्मुख आता है |जो उसको अपनाएगा ,उसे दुःख को भी अपनाना पड़ेगा |
* मनुष्य भले ही राजनितिक और सामाजिक स्वतन्त्रता हासिल कर ले ,पर यदि वह वासनाओ का दास है
तो वह यथार्थ मुक्ति का आनंद अनुभव नहीं कर सकता |
*सबसे मूर्ख व्यक्ति भी एक कार्य सम्पन्न कर सकता है यदि वो उसके मन का हो |पर बुद्धिमान तो वह है जो प्रत्येक कार्य को अपनी रूचि के अनुरूप बना ले सकता है |
कोई भी कार्य तुच्छ नहीं है |
* जिसने अपने ऊपर संयम कर लिया है वह बाहर की किसी वस्तु द्वारा प्रभावित नहीं किया जा सकता |
उसके लिए गुलामी फिर नहीं रह जाती |उसका मन मुक्त हो गया है |केवल ऐसा व्यक्ति ही संसार में
आदर्श रूप में रहने योग्य है |
* हम जितना ही शांत होंगे ,हमारे स्नायु जितने ही कम उत्तेजित होंगे ,हम उतना ही अधिक प्रेम कर सकेंगे
और हमारा कार्य उतना ही अच्छा होगा ||
* जो कार्य और विचार आत्मा की पवित्रता और शक्ति को संकुचित है वे विचार बुरे है ,बुरे कार्य है ;और जो
कार्य तथा विचार आत्मा की अभिव्यक्ति में सहायक होते है एवम उसकी शक्ति को मानो प्रकाशित कर
देते है वे अच्छे और नीतिपर है |
* धन फलदायक नहीं होता और न नाम ;यश फलदायक नहीं होता और न विद्या |प्रेम ही सर्वत्र फलदायक है |
चरित्र ही कठिनाइयों की संगीन दीवारों को भेदकर अपना रास्ता बना लेता है |
* जीवन -कर्म सहज ही भीषण है |
उसका सब सुख -केवल क्षण है |
यद्यपि लक्ष्य अद्रश्य धूमिल है |
फिर भी वीर- ह्रदय !हलचल है |
अंधकार को चीर अभय हो -
बढ़ो साहसी !जग विजयी हो |
* अपवित्र भावना उतनी ही बुरी है ,जितना अपवित्र कार्य |संयत कामना से उच्चतम फल प्राप्त होता है |

साभार -विवेकानन्द की वाणी


Thursday, January 13, 2011

"एक चुटकी प्रयास "2

स्वामी विवेकानंद के विचार प्रवाह की इस श्रंखला में आज का विचार है |

"सेवा "
* प्रत्येक पुरुष को प्रत्येक स्त्री को -हर एक जीव को भगवत स्वरूप समझो |
तुम किसी की सहायता नहीं कर सकते ;तुम केवल सेवा मात्र कर सकते हो |;प्रभु की संतानों की सेवा करो -जब कभी
अवसर मिले |यदि प्रभु की इच्छा से तुम उनकी किसी संतान की सेवा कर सको ,तो सचमुच तुम धन्य हो ;
अपने आप को बड़ा मत समझो |
तुम धन्य हो की यह अवसर तुम्हे दिया गया दूसरो को नहीं |उसे पूजा की द्रष्टि से देखो |गरीब और दुखी लोग तो
हमारी ही मुक्ति के लिए है ताकि रोगी ,विक्षिप्त ,कोढ़ी और पापी के रूप में अपने सामने आनेवाले प्रभु की सेवा हम कर सके |
* मै उसी को महात्मा कहता हूँ जिसका ह्रदय गरीबो के लिए रोता है ;अन्यथा वह तो दुरात्मा है |
* जब तक लाखो लोग भूखे और अज्ञानी है ,तब तक मै उस प्रत्येक व्यक्ति को कृतघ्न समझता हूँ जो उनके बल पर
शिक्षित बना और अब उनकी और ध्यान तक नहीं देता |
* विकास ही जीवन है और संकोच ही म्रत्यु \प्रेम ही विकास है और स्वार्थपरता ही संकोच |अतएव प्रेम ही जीवन का एकमात्र नियम है |जो प्रेम करता है ,वो जीता है जो स्वार्थी है वो मरता है | अतएव प्रेम के लिए ही प्रेम करो |
* हमारा उद्देश्य है संसार का भला करना ,न की अपने नाम का ढोल पीटना |
* जो आज्ञा पालन करना जानता है वाही आज्ञा देना भी जानता है हम चाहते है संगठन |
संगठन ही शक्ति है ,और उसका रहस्य है आज्ञापालन |
* जो मानव जाती की सहायता करना चाहते है ,उन्हें चाहिय की पहले वे अपने सुख दुःख ,नाम यश ,
तथा सर्व विध स्वार्थी भावनाओ की गठरी बनाकर उसे समुद्र में फेंक दें और भगवान के पास आये |यही सारे धर्म प्रवर्तकों ने कहा है और किया है |
* पक्षपात ही सारी बुराइयों का प्रधान कारण है |
* मुझे अपने मानव बंधुओं की सहायता करने दो - मै बस यही चाहता हूँ |
* करूणावश दुसरो की भलाई करना अवश्य अच्छा है ,"शिवज्ञान से जीवसेवा "सब से उत्तम है |
* वत्स कोई भी मनुष्य कोई भी राष्ट्र दुसरे से घ्रणा करके नहीं जी सकता |भारत का भाग्य सितारा तो उसी दिन अस्त हो गया जिस दिन उसने म्लेच्छ शब्द का अविष्कार किया और दूसरो के साथ मेल जोल बंद कर दिया |
* सागर की ओर देखो तरंग की ओर नहीं ;चींटी और देवता में कोई भेद नहीं देखो |प्रत्येक कीड़ा भी
ईसा मसीह का भाई है एक को उच्च और दुसरे को नीच कैसे कहते हो ?अपने स्थान में हर एक बड़ा है |
* अब तुम्हे महावीर के जीवन को आदर्श बनाना होगा |देखो वे कैसे श्रीरामचंद्र की आज्ञामात्र से विशाल सागर को
लाँघ गये |उनका जीवन या म्रत्यु से कोई नाता नहीं था |वे सम्पूर्ण रूप से इंद्रियजित थे उनकी प्रतिभा अद्भुत थी
अब तुम्हे अपना जीवन दास्य भक्ति के उस महान आदर्श पर खड़ा करना होगा |उसके माध्यम से ,क्रमश:अन्य सारे आदर्श जीवन में प्रकाशित होंगे |गुरु की सर्वतोभावेन पालन और अटूट ब्रह्मचर्य -बस यही सफलता का रहस्य है |हनुमान एक ओर सेवादर्ष के प्रतीक है ,उसी प्रकार सिन्हविक्रम के भी प्रतिक है सारा संसार उनके सम्मुख
श्रद्धा और भय से सर झुकाता है |
साभार -विवेकानन्द की वाणी



"एक चुटकी प्रयास " 1

वैसे तो तारीख से १२ जनवरी को स्वामीजी का जन्म दिन मनाया जाता है किन्तु रामकृष्ण मिशन, रामकृष्ण मठ और शारदा मठ में विवेकानंदजी का जन्मोत्सव हर वर्ष माघ कृष्ण सप्तमी को मनाया जाता है | जों की इस वर्ष २६ जनवरी गणतंत्र दिवस के अवसर पर है | जिसमे मंगल आरती ,वैदिक मंत्रोच्चारण , भजन ,विशेष पूजा और हवन शामिल है |युवा सम्मलेन ,युवा जाग्रति ये भी इन कार्यक्रमों का हिस्सा रहते है |
विवेकानंदजी के विचारो को कार्यो में परिणित करना ही रामकृष्ण मिशन ,शारदा मठ का मुख्य उद्देश्य है जिसमे वे बिना प्रचार के अपने कार्यो में निरंतर आगे बढ़ रहे है |
बेलूर मठ ,(कोलकाता ) मुंबई का खार का मिशन ,चेन्नई ,बेंगलोर ,बड़ोदा ,लखनऊ ,नागपुर , इंदौर ,अल्मोड़ा ,मायावती (advait ashram )shyamlatal (utrakhand )इन जगहों पर मैंने स्वामीजी द्वारा जगाये अलख को प्रत्यक्ष देखा है |इसके आलावा पूरे देश विदेश के केन्द्रों द्वारा आध्यात्मिकता के साथ ही आत्मनो मोक्षार्थऔर समाज को दिशा देने का कार्य मनोयोग से किया जा रहा है |बहुत सी जगह मै भी इन कार्यक्रमों का एक चुटकी हिस्सा बनी हूँ |
स्वामीजी की तारीख और तिथि के जन्मोत्सव के बीच के दिनों में उनके विचारो को आप सब के साथ बाँटने का प्रयास करना चाहती हूँ |

आज का विचार
"बल "
*मेरे साहसी युवको ,ये विश्वास रखो की की तुम्ही सब कुछ हो -
महान कार्य करने के लिए इस धरती पर आये हो |गीदड़ -घुड़कियो से भयभीत न हो जाना -
नहीं ,चाहे वज्र भी गिरे ,तो निडर हो खड़े हो जाना |
और कार्य में लग जाना |
* तुम्हारे देश को वीरो की आवश्यकता है ;अत : वीर बनो |
पर्वत की भांति अडिग रहो |'सत्यमेव जयते '-सत्य की ही सदा विजय होती है |
भारत चाहता है एक नयी विद्युत शक्ति ,जों राष्ट्र की नस नस में नया जीवन संचार कर दे |
साहसी बनी ,साहसी बनो ;मनुष्य तो एक बार ही मरता है |मुझे कायरता से घृणा है |मेरे शिष्य कायर न हो |
गंभीर से गंभीर कठिनाइयों में भी अपना मानसिक संतुलन बनाये रखो |
क्षुद्र अबोध जीव तुम्हारे लिए क्या कहते है ,इसकी तनिक भी परवाह न करो |
उपेक्षा उपेक्षा !उपेक्षा !ध्यान रखो ,आंखे दो है ,कान भी दो है ,पर मुंह केवल एक है |
पर्वत के विध्न बाधाओं में से होते हुए ही सारे कार्य महान कार्य संपन्न होते है |
अपना पुरुषार्थ प्रकट करो |
काम और कांचन में जकड़े हुए मोहान्ध व्यक्ति उपेक्षा की ही द्रष्टि से देखे जाते है |
*प्राचीन धर्मो ने कहा ,वह नास्तिक है ,जों ईश्वर में विश्वास नहीं करता |"नया धर्म कहता है
"नास्तिक वो है जों स्वयम में विश्वास नहीं करता "|
* बल ही जीवन है और दुर्बलता म्रत्यु |बल ही परम आनन्द है , शाश्वत जीवन है |
* बल ही एक मात्र आवश्यक वस्तु है |बल ही भवरोग की एक मात्र दवा है |धनिकों द्वारा रोंदे जाने वाले निर्धनों के लिए बल ही एक मात्र दवा है |विद्वानों द्वारा दबाये जाने वाले अग्यजनो के लिए बल ही एक मात्र दवा है ,और अन्य पापियों द्वारा सताए जाने वाले पापियों के लिए भी वही एक मात्र दवा है |
* मनुष्य सारे प्राणियों में श्रेष्ठ है , सारे देवताओ से श्रेष्ठ है ;उससे श्रेष्ठ और कोई नहीं |देवताओ को फिर से धरती पर नीचे आना पड़ेगा मनुष्य शारीर धारण कर मुक्ति प्राप्त करनी पड़ेगी |केवल मनुष्य ही पूर्णता प्राप्त करता है देवताओ के भाग्यतक में यः नहीं |
* उदार बनो |ध्यान रखो ,जीवन का एक मात्र चिन्ह है ,गति और विकास |
* वत्स ,मै चाहता हूँ लोहे की मांसपेशिया और फौलाद के स्नायु ,जिनके अन्दर ऐसे मन का वास हो ,जों वज्र के उपादानो से गठित हो |
* सत्य असत्य से अन्नतगुना प्रभाव शाली है ;और ऐसे ही भलाई बुराई से |
यदि ये बाते तुममे है तो ,वे अपने प्रभाव से ही अपना स्थान बना लेगी |
* सत्य का अनुसरण करो ,फिर वो तुन्हें जहाँ ले जाये ;प्रतेक भाव को उसके चरम सिधांत तक लिए जाओ |
कायर और कपटी मत होना |
* पहले हम स्वयम देवता बने और दुसरो को देवता बन्ने में सहायता दे |
"बनो और बनाओ "-बस यही हमारा मंत्र हो |

साभार -विवेकानन्द की वाणी



Monday, January 10, 2011

"विवेक सूत्र "



वीर हनुमान जी का विचार किये बिना हम श्रीरामचंद्र जी का विचार नहीं कर सकते ,अर्जुन के स्मरण किये बिना हम भगवान श्रीकृष्ण का विचार नहीं कर सकते |बुद्धदेव के साथ आनंद अवम इसा मसीह के साथ सेंत पोल का भी विचार हमे करना पड़ता है | श्रीरामकृष्ण तथा स्वामी विवेकानन्द का सम्बन्ध भी इसी प्रकार का है |श्रीरामकृष्ण मानो मूल स्त्रोत है तथा स्वामी विवेकानन्द उस जल को बहा ले जाना वाला प्रवाह |



१२ जनवरी १८६३ को कलकते में प्रसिद्द वकील विश्वनाथ दत्त और देवी भुवनेश्वरी की चौथी नरेन् के रूप में जन्म लिया था स्वामी विवेकानन्द ने |माता पिता ने "नरेन्द्रनाथ "नाम दिया अपनी इस तेजस्वी संतान को|




प्यार से उन्हें घर में "नरेन "कहकर बुलाया जाता |ठाकुर (रामकृष्ण परमहंस )उन्हें हमेशा ही नरेन कहकर ही पुकारते थे |

बालक नरेनने बचपन से ही बहुत चंचल .साहसी और प्रखर बुद्धि पाई थी |

शिकागो की धर्म सभा में जाने के पूर्व राजस्थान के खेतड़ी के राजा ने" स्वामी विवेकानंद "के नाम से विभूषित किया था |

स्वामीजी युवाओ के प्रेरणा स्त्रोत रहे है |

स्वामी जी के बारे में कुछ कहना मानो सूरज को चिराग दिखाना है |

उनके १४९ वे जन्मदिवस पर शत शत नमन |

आज स्वामी विवेकानंद जयंती है जो कि सर्व विदित है कि" राष्ट्रीय युवा दिवस" के रूप में मनाई जाती है |

इसी अवसर पर उनको नमन ...और स्वामी जी द्वारा दिये गये उद्गार के रूप में प्रतिष्ठित" विवेकसूत्र "|


नमन


भुक्तिमुक्तिकृपाकटाक्षप्रेक्षणमघदलविदलनदक्षम |
बालचंद्रधरमिंदूवन्ध्यमिह नौमि गुरु विवेकानंदम||


-जिनकी कृपा दृष्टी से भोग और मोक्ष दोनो प्राप्त होते है ,जो पापसमूह का विनाश करने में निपुण है ,मस्तक पर चंद्र कला धारण करने वाले शिव हि है एवम जो" इन्दु "(कवि )के वंदनीय है ,
उन गुरु विवेकानंद को मै प्रणाम करता हूँ |

"विवेक सूत्र "
* प्रत्यक जीव अव्यक्त ब्रह्म है |

*बाह्य एवम आन्तर प्रकृती को वशीभूत करके
इस अंत :स्थ के बह्म भाव को व्यक्त करना हि जीवन का चरम लक्ष्य है |

* कर्म ,उपासना ,मन :संयम अथवा ज्ञान -इनमे से ऐक से अधिक या सभी उपयो का
सहारा लेकर अपना ब्रम्ह भाव
व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ |

* बस यही धर्म का सर्वस्व है |
मत, अनुष्ठान पद्धती ,शास्त्र ,मंदिर अथवा
अन्य बाह्य क्रिया कलाप उसके गौण अंग -प्रत्यंग मात्र है |

साभार -विवेकानंद की वाणी


































Sunday, January 09, 2011

२८० लाख करोड़ का सवाल है .......

एक मेल आया है लगा आप सबके साथ बाँट लू |


280 लाख करोड़ का सवाल है ...
*
"भारतीय गरीब है लेकिन भारत देश कभी गरीब नहीं रहा"* ये कहना है स्विस बैंक के
डाइरेक्टर का. स्विस बैंक के डाइरेक्टर ने यह भी कहा है कि भारत का लगभग 280
लाख करोड़ रुपये (280 ,00 ,000 ,000 ,000) उनके स्विस बैंक में जमा है. ये रकम
इतनी है कि भारत का आने वाले 30 सालों का बजट बिना टैक्स के बनाया जा सकता है.
या यूँ कहें कि 60 करोड़ रोजगार के अवसर दिए जा सकते है. या यूँ भी कह सकते है
कि भारत के किसी भी गाँव से दिल्ली तक 4 लेन रोड बनाया जा सकता है. ऐसा भी कह
सकते है कि 500 से ज्यादा सामाजिक प्रोजेक्ट पूर्ण किये जा सकते है. ये रकम
इतनी ज्यादा है कि अगर हर भारतीय को 2000 रुपये हर महीने भी दिए जाये तो 60 साल
तक ख़त्म ना हो.
यानी भारत को किसी वर्ल्ड बैंक से लोन लेने कि कोई जरुरत नहीं है. जरा सोचिये
... हमारे भ्रष्ट राजनेताओं और नोकरशाहों ने कैसे देश को लूटा है और ये लूट का
सिलसिला अभी तक 2010 तक जारी है. इस सिलसिले को अब रोकना बहुत ज्यादा जरूरी हो
गया है. अंग्रेजो ने हमारे भारत पर करीब 200 सालो तक राज करके करीब 1 लाख करोड़
रुपये लूटा. मगर आजादी के केवल 64 सालों में हमारे भ्रस्टाचार ने 280 लाख करोड़
लूटा है. एक तरफ 200 साल में 1 लाख करोड़ है और दूसरी तरफ केवल 64 सालों में
280 लाख करोड़ है. यानि हर साल लगभग 4.37 लाख करोड़, या हर महीने करीब 36 हजार
करोड़ भारतीय मुद्रा स्विस बैंक में इन भ्रष्ट लोगों द्वारा जमा करवाई गई है.
भारत को किसी वर्ल्ड बैंक के लोन की कोई दरकार नहीं है. सोचो की कितना पैसा
हमारे भ्रष्ट राजनेताओं और उच्च अधिकारीयों ने ब्लाक करके रखा हुआ है.
हमे भ्रस्ट राजनेताओं और भ्रष्ट अधिकारीयों के खिलाफ जाने का पूर्ण अधिकार है.
हाल ही में हुवे घोटालों का आप सभी को पता ही है - CWG घोटाला, २ जी
स्पेक्ट्रुम घोटाला , आदर्श होउसिंग घोटाला ... और ना जाने कौन कौन से घोटाले
अभी उजागर होने वाले है ........
आप लोग जोक्स फॉरवर्ड करते ही हो. इसे भी इतना फॉरवर्ड करो की पूरा भारत इसे
पढ़े ... और एक आन्दोलन बन जाये ...
सदियो की ठण्डी बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज् पहन इठलाती है।
दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो,
सिहासन खाली करो की जनता आती है।
जनता? हां, मिट्टी की अबोध् मूर्ते वही,
जाडे पाले की कसक सदा सहने वाली,
जब् अन्ग अन्ग मे लगे सांप हो चूस् रहे,
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"Girte hain sheh-sawar hi maidan-e-jung mein Woh tifl kya gire jo ghutnon ke bal chale" !!!

Thursday, January 06, 2011

कुछ ये भी झेले ........

दांत का दर्द नहीं नहीं ?दांतों का दर्द ,ऊपर से अंतर्जाल की तकनीकी खराबी खराबी भी ऐसी की ब्लाग तो खुल जाये पर टिप्पणी न दे पाए ,कभी कभी लम्बी लम्बी टिप्पणी लिखी और पोस्ट ही न हो पाई |दिव्या जी ,सलिलजी के ब्लॉग पर खूब लम्बी टिप्पणीलिखी और अपनी लिखी टिप्पणी पर खुद ही मोहित हो ली, क्योकि टिप्पणी जा ही नही पाई और अब चाहकर भी वैसे भाव नहीं आ पा रहे है इस बीच कितनी ही पोस्ट पढ़ ली पर पर टिप्पणी लिखने का स्त्रोत भी न रहा |बड़ी मुश्किल से कल एक टिप्पणी पोस्ट हुई तो आज साहस हुआ कुछ अपना दांत का ,दाढ़ का दर्द बाँट सकू|
दांत का दर्द और टिप्पणी पोस्ट न होना दोनों ही मेरे बस में नहीं है दात का दर्द तो रूट केनल के माध्यम से कंट्रोल में आ गया किन्तु लम्बी टिप्पणी पोस्ट न होने का मलाल अभी भी है |
ऐसे तो मेरी टिप्पणी करने ,पोस्ट होने न होने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा फिर भी लगता है जिनसे हम जुड़ चुके है मन में एक आस बंधी रहती हे अंतर्जाल के माध्यम से मिलने की, विचारो को बाटने की |
जिनको रोज हम पढ़ते है जिन सकारात्मक विचारो ने हमारे अंतर्मन पर पड़ी हुई धूल को हटाया है उनसे बात करना उनको धन्यवाद देना भी हमारा फर्ज बनता है |
जैसे सारे त्यौहार पर हम सभी एक दुसरे को मुबारकबाद देते है उसी तरह ठंडी का खूबसूरत मौसम भी सबको मुबारक |
गर्म गर्म जलेबी ,गाजर का हलवा ,मेथी के परांठे ,मटर के परांठे मुबारक |
बस पकौड़ी नहीं कह पाऊँगी क्योकि प्याज के बिना कैसी पकोड़ी? और जो चीज अपनी पाकेट मंजूर नहीं करती वो हम खरीदते ही नहीं |