"गणतंत्र दिवस की अनेक शुभकामनाये "
कई बार अनियमितता के चलते या फिर दो दिन कोई मेहमान आ जाय तो घर अस्त व्यस्त हो जाता है |अभी पिछले साल जब घर कि पुताई(वैसे लोग पेंटिग करवाना कहना ज्यादा पसंद करते है ) करवाई और छत पर भी कुछ सामान रखा था रात में अचानक बेमौसम बारिश ग्लोबल वार्मिंग के कारण आने से जैसे तैसे सामान लाकर कमरों में पटक दिया |सुबह सुबह सब तो अपने काम से चले गये रह गई मै और बेतरतीब फैला सामान ,कहाँ से शुरू करू काम? कुछ समझ ही नहीं आ रहा था |ठीक वैसे ही पिछले दो चार दिन से हो रहा है इतने विषय दिमाग में घूम रहे है ,न चाहते हुए भी बार बार महंगाई के बारे में बात करना ,आपसी रिश्तो का दरकना ,मोबाईल पर झूठ पे झूठ बोलते हुए लोगो को सामने खड़े हुए सिर्फ देखना ,टेलीविजन पर ज्योतिषियों तर्कशास्त्रीयों कि बहस के द्वारा अपनी चैनल कि टी.आर .पी .बढ़ाना और टेलीविजन के धारावाहिकों में बेलगाम हिंसा का अत्यंत विकृत रूप परिवारों में दिखाना |
किसे विस्तार दू ?
इसी बीच रिलायंस फ्रेश में सोचा सब्जी ठीक मिल जाएगी? चलो आज वहीं से ले लेते है १२०० वर्ग्फूट कि जगह में रेक्स पर ठसाठस सामान भरा हुआ सा दीखता हुआ |एक बार में एक ही ट्राली और एक आदमी निकल सकता है उसमे भी उनके कर्मचारी ही सामान संजोने में लगे रहते है |एक बार में अगर दस आदमी आते है तो लगता है बहुत भीड़ है उस पर लगातार माइक पर ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए इस्कीमे दोहराते रहना कृत्रिम व्यस्तता दिखाने का ही एक उपाय लग रहा था |
सुबह ११ बजे के समय में ज्यादातर अवकाश प्राप्त लोग या गृहिणियां ही दिखाई देती है जो छांट छांट कर
सब्जी लेते है या पैक चीजो के भाव पढ़ पढ़कर सामान लेने में ही विश्वास करते है |पर आज कुछ नन्हे नन्हे ग्राहक भी दिखाई दिए जिन्हें उनकी शिक्षिकाये खरीददारी सिखाने के लिए लाई थी,प्यारे प्यारे छोटे छोटे नर्सरी के महज तीन साल के बच्चे |उन्हें सब्जियों के, फलों के अंग्रेजी नाम सीखना था? कैसे ट्राली लेकर आना? कैसे सामान लेना ?और कैसे बिल बनवाना |बच्चे बार बार कतार से अलग हो जाते उन्हें मिस डांट देती फिर ललचाई नजरो से चाकलेट कि तरफ देख लेते
और कतार में खड़े हो जाते |इस बीच मैडम ने अपने घर के लिए किराना खरीद लिया और करीब १५ मिनट में बच्चे वापस कतार में ही जाने लगे |और वही के एक कर्मचारी द्वारा उन्हें एक - एक चाकलेट दी जाने लगी |तभी एक बच्चे ने मचलकर कहा -मुझे दो चाकलेट चाहिए अपनी मम्मी के लिए भी ?पर सबको एक एक ही चाकलेट मिलनी थी |बच्चो का
शापिग पीरियड समाप्त हो गया था वो चले गये मै उनको देखने में ,उनकी नन्ही आँखों के अनेको प्रश्न पढने का प्रयत्न कर रही थी |और कुछ अपने से किये ?प्रश्नों के उत्तर भी खोज रही थी कि क्या ?बच्चो को अभी से खरीदारी करना सिखाना आवश्यक है ?और जितने अंग्रेजी नाम उन्हें सिखाये गये रोजमर्रा कि चीजो के वो भी अभी जरुरी है ?क्या वो याद रख पायेगे ?घर जाने तक ?यही सोचते सोचते मैंने भी सब्जी ली और घर आ गई|
घर आते ही मैंने देखा सामान रखने वाले काउन्टर से अपना सामान लाना भूल गई, सोचा शाम को ले कि टोकन तो है ही |शाम को गई तो देखा सुबह के बच्चो वाला ग्राहक बच्चा अपनी मम्मी का आचल पकड़कर जिद कर रहा था चाकलेट के लिए और कह रहा था अंकल ने सुबह तो दी थी अभी क्यों नहीं देते ?मम्मी ने बहुत समझाया सुबह कि बात अलग थी पर बच्चा कहाँ मानने वाला था ?उसकी मम्मी को चाकलेट खरीदनी पड़ी और वो भी पूरे परिवार के लिए ||
और मै सोचने लगी क्या बच्चे ने खरीददारी सीख ली? और बाजार ने बिक्री ????????
Sunday, January 24, 2010
Wednesday, January 20, 2010
बसंत
शीत की बंद कोठरी के द्वार से
अंधेरो को उजाले में लाया है बसंत ।
महकती कलियों के लिए भोरो का ,
प्रेम संदेश लाया है बसंत .
पीले से मुख पर बसंती आभा
बिखेरता हुआ आया है बसंत .
किसानो के लिए फसलो की सोगात
लेकर आया है बसंत .
जीवन को जीवन देने ,
फ़िर से आया है बसंत .
और पढ़ते हुए बच्चो के लिए ,
देवी माँ सरस्वती का वरदान
लेकर आया है बसंत ।
Wednesday, January 13, 2010
कैसा दान ?
अभी १५ दिन पहले चन्द्र ग्रहण था बस दूसरे दिन सुबह -सुबह ही दान लेने के लिए महिला स्वीपर( अंग्रेजी लिए क्षमा करे ) का बेल पर बेल बजाना शुरू और दरवाजा खोलते ही जोर जोर से बोलना जारी था :दान दे दो ग्रहण छूटने का ?
मैंने कहा - अभी तो उठे है जरा पहले कचरा ले लो बाहार कि सफाई कर दो फिर लेजाना |
आज हम कचरा नहीं उठायेगे और न ही झाड़ू लगायेगे |उसने तपाक से कहा -
अब मै अपने क्रोध को नहीं दबा सकती थी मैंने भी कह दिया फिर हम भी आज दान नहीं देगे ,कल ले जाना |
मन में तो मेरे ये आ रहा था कि आज क्या ? कल क्या? कभी भी इसको दान नहीं दू ?
दान मांगने से थोड़ी मिलता है? ये तो सरासर भीख मांगना ही हुआ |
वह दोनों हाथ कमर पर रखकर आंखे मटकाकर बोली -जड़ी से ५१ रूपये दे दो |
मैंने कहा - दान में तो कपडा अनाज देते है, रुपया तो तो नहीं देते ?
हम कपड़ा अनाज, वजन उठाकर नहीं ले जा सकते ?
मै सकते ?में थी क्या करू ?देती हूँ तो मेरी हार होगी ?नहीं दूँगी तो तो मुझे अपने बचपन के वो सारे टोटके याद आ गये जब भी बोर्ड कि परीक्षा देने जाते दादी कहती बेटा मेहतरानी अगर सुबह सुबह दिख जाये तो अच्छा शगुन होता है |अब सुबह सडको कि तो सफाई होनी ही होती है ? तो तो मेहतरानी तो दिखेगी ही ?साथमें दादी कुछ रेजगारी भी दे देती और कहती
अगर दिख जाये तो उसे दे देना तब परचा अच्छा जाने कि उम्मीद में बड़ी श्रद्धा से उसे दे देते |(ये बात और है कि जब ढंग से पढाई ही नहीं कि तो मेहतरानी भी क्या करती ?)आज उस श्रद्धा कि जगह विद्रोह ने ले ली थी |इसके पीछे इन लोगो का लालच, इनकी ढिठाई , इनकी अकर्मण्यता मुझे पीछे खींच रही थी |सरकार से तनखा ये पाते है ,फिर भी हर घर से १०० रुपया महीना लेते है खुद काम नहीं करते अपनी जगह दुसरो को मजदूरी पर रखते है सबके इलाके बंटे होते है |रविवार के आलावा हफ्ते में और दो दिन इनका जन्म सिद्ध अधिकार है |और फिर हरेक त्यौहार पर छुट्टी ,इनाम |
मै कुछ और उसे कहती इसके पहले ही हमारे पड़ोसी ने उसे बुलाकर फटाफट ५१ रूपये दिए और दरवाजा बंद कर लिया
वो फिर मेरे सामने खड़ी हो गई मै खीज कर अन्दर गई २१ रूपये निकलकर उसे दे दिए 1उसने मुझे बड़ी ही हिकारत कि नज़र से देखा और अपने छोटे से पर्स में नोट ठूंसकर रखती हुई चली गई |
कल फिर संक्रांति है मै आज से चिंता में हूँ १०० रूपये किलो तिल ,५० रूपये किलो गुड ,100 रूपये किलो कि दाल और ५० रूपये किलो के चांवल कितनी खिचड़ी मंदिर में दू ? कितनी ब्राहमण को ?कितनी स्वीपर को और कितनी संघ के लोगो को |
एक जमाना था जब गाँवो में अनाज खेत से घरो में आता था ,नया गुड बनता था दाले घर कि होती थी भरपूर धान होता था भरपूर टोकनियाँ भरकर श्रद्धा से दान दे दिया जाता था |ब्राहमण का आसरा भी यही होता था क्योकि वह घर घर पूजा पाठ करवाकर अपने परिवार का पेट भरता था उसकी जीविका का अन्य कोई साधन नहीं था |आज जब पंडित अन्य कई माध्यम से जीविका अर्जन करता है मन्दिरों से उन्हें उचित तनखाह मिलती है |फिर दान का क्या ओचित्य ?
उसके बाद फिर से १५ दिन में सूर्य ग्रहण
मुझे सामना करना है फिर से चिंता में हूँ ?कि मुझे सामना करना है स्वीपर का ,ढोल वाले का,बेन्ड बजे वाले का ,
हिजडो का ,घर में काम करने वाली सहयोगियों का ?
और इन सबके बीच मेरी जोर शोर से " हल्दी कुमकुम"का आयोजन का बजट में कटोती कि भेंट चढ़ जाता और चाहकर भी सिर्फ छोटे छोटे दीपक ही स्वेच्छा से दे पाती और तिल गुड खाओ और मीठा मीठा बोलो सिर्फ यही कह पाती ....
मैंने कहा - अभी तो उठे है जरा पहले कचरा ले लो बाहार कि सफाई कर दो फिर लेजाना |
आज हम कचरा नहीं उठायेगे और न ही झाड़ू लगायेगे |उसने तपाक से कहा -
अब मै अपने क्रोध को नहीं दबा सकती थी मैंने भी कह दिया फिर हम भी आज दान नहीं देगे ,कल ले जाना |
मन में तो मेरे ये आ रहा था कि आज क्या ? कल क्या? कभी भी इसको दान नहीं दू ?
दान मांगने से थोड़ी मिलता है? ये तो सरासर भीख मांगना ही हुआ |
वह दोनों हाथ कमर पर रखकर आंखे मटकाकर बोली -जड़ी से ५१ रूपये दे दो |
मैंने कहा - दान में तो कपडा अनाज देते है, रुपया तो तो नहीं देते ?
हम कपड़ा अनाज, वजन उठाकर नहीं ले जा सकते ?
मै सकते ?में थी क्या करू ?देती हूँ तो मेरी हार होगी ?नहीं दूँगी तो तो मुझे अपने बचपन के वो सारे टोटके याद आ गये जब भी बोर्ड कि परीक्षा देने जाते दादी कहती बेटा मेहतरानी अगर सुबह सुबह दिख जाये तो अच्छा शगुन होता है |अब सुबह सडको कि तो सफाई होनी ही होती है ? तो तो मेहतरानी तो दिखेगी ही ?साथमें दादी कुछ रेजगारी भी दे देती और कहती
अगर दिख जाये तो उसे दे देना तब परचा अच्छा जाने कि उम्मीद में बड़ी श्रद्धा से उसे दे देते |(ये बात और है कि जब ढंग से पढाई ही नहीं कि तो मेहतरानी भी क्या करती ?)आज उस श्रद्धा कि जगह विद्रोह ने ले ली थी |इसके पीछे इन लोगो का लालच, इनकी ढिठाई , इनकी अकर्मण्यता मुझे पीछे खींच रही थी |सरकार से तनखा ये पाते है ,फिर भी हर घर से १०० रुपया महीना लेते है खुद काम नहीं करते अपनी जगह दुसरो को मजदूरी पर रखते है सबके इलाके बंटे होते है |रविवार के आलावा हफ्ते में और दो दिन इनका जन्म सिद्ध अधिकार है |और फिर हरेक त्यौहार पर छुट्टी ,इनाम |
मै कुछ और उसे कहती इसके पहले ही हमारे पड़ोसी ने उसे बुलाकर फटाफट ५१ रूपये दिए और दरवाजा बंद कर लिया
वो फिर मेरे सामने खड़ी हो गई मै खीज कर अन्दर गई २१ रूपये निकलकर उसे दे दिए 1उसने मुझे बड़ी ही हिकारत कि नज़र से देखा और अपने छोटे से पर्स में नोट ठूंसकर रखती हुई चली गई |
कल फिर संक्रांति है मै आज से चिंता में हूँ १०० रूपये किलो तिल ,५० रूपये किलो गुड ,100 रूपये किलो कि दाल और ५० रूपये किलो के चांवल कितनी खिचड़ी मंदिर में दू ? कितनी ब्राहमण को ?कितनी स्वीपर को और कितनी संघ के लोगो को |
एक जमाना था जब गाँवो में अनाज खेत से घरो में आता था ,नया गुड बनता था दाले घर कि होती थी भरपूर धान होता था भरपूर टोकनियाँ भरकर श्रद्धा से दान दे दिया जाता था |ब्राहमण का आसरा भी यही होता था क्योकि वह घर घर पूजा पाठ करवाकर अपने परिवार का पेट भरता था उसकी जीविका का अन्य कोई साधन नहीं था |आज जब पंडित अन्य कई माध्यम से जीविका अर्जन करता है मन्दिरों से उन्हें उचित तनखाह मिलती है |फिर दान का क्या ओचित्य ?
उसके बाद फिर से १५ दिन में सूर्य ग्रहण
मुझे सामना करना है फिर से चिंता में हूँ ?कि मुझे सामना करना है स्वीपर का ,ढोल वाले का,बेन्ड बजे वाले का ,
हिजडो का ,घर में काम करने वाली सहयोगियों का ?
और इन सबके बीच मेरी जोर शोर से " हल्दी कुमकुम"का आयोजन का बजट में कटोती कि भेंट चढ़ जाता और चाहकर भी सिर्फ छोटे छोटे दीपक ही स्वेच्छा से दे पाती और तिल गुड खाओ और मीठा मीठा बोलो सिर्फ यही कह पाती ....
Tuesday, January 12, 2010
"शांति "स्वामी विवेकानंद द्वारा रचित कविता
आज स्वामी विवेकानंद जी कि जयंती है जिसे" राष्ट्रीय युवा दिवस" के रूप में मनाया जाता है |आज के संचार माध्यमो में स्वामीजी के विचारो को लेकर जागरूकता नहीं है ,और नहीं उनका ध्यान इस और है, पर स्वामीजी के विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक है |स्वामी विवेकांनद ने देश विदेशो में जो व्याख्यान दिए थे उन्ही में से उनके कुछ उदगार है ---
हम प्रत्येक आत्मा को आव्हान करें -"उत्तिष्ठत ,जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ,-उठो जागो और जब तक लक्ष्य प्राप्त न कर लो कहीं मत ठहरो |"
उठो!जागो !दौर्बल्य के मोहजाल से निकलो ,कोई वास्तव में दुर्बल नहीं है |आत्मा अनंत ,सर्वशक्तिमान एवं सर्वव्यापी है खड़े हो स्वयम को झकझोरो ,अपने अन्दर व्याप्त ईश्वर का आव्हान करो |
उसकी सत्ता को अस्वीकार मत करो|हमारी जाति पर बहुत अधिक निष्क्रियता ,बहुत अधिक दुर्बलता और बहुत अधिक मोहजाल छाया रहा है और अब भी है |
सच्चा मनुष्य वह है ,जो मूर्तिमंत पौरुष के समान सामर्थ्यशाली हो किन्तु साथ ही नारी के जैसे कोमल अंत करण से युक्त हो तुममे अपने चारों ओर रहने वाले लक्षावधि प्राणियों के प्रति सहानुभूति तो हो किन्तु उनके साथ ही तुम दृढ एवं कर्तव्य- कठोर भी बनो |तुममे आज्ञाकारिता भी अवश्य रहे |भले ही ये बाते तुम्हे परस्पर विरोधी लगे -किन्तु ऊपर से दिखने वाले इन गुणों को अपनाना ही होगा |
स्वामी विवेकानंद जी के भाषण तो जग प्रसिद्द है उनके द्वारा रचित कुछ अंग्रेजी कविताओ का अनुवाद कवितावली पुस्तक में है इसमें सन १८९९ में न्यूयार्क के रिजले मनर में लिखित "peace "नमक कविता का अनुवाद निम्नलिखित है |
" शांति "
देखो ,जो बलात आती है ,
वह शक्ति ,शक्ति नहीं है !
वह प्रकाश ,प्रकाश नहीं है
जो अधेरे के भीतर है ,
और न वह छाया ,छाया ही है
जो चकाचोंध करने वाले
प्रकाश के साथ है |
वह आनन्द है ,
जो कभी व्यक्त नहीं हुआ ,
और अन्भोगा ,गहन दुःख है
अमर जीवन जो जिया नहीं गया
और अनन्त मृत्यु ,जिस पर
किसी को शोक नहीं हुआ |
न दुःख है न सुख ,
सत्य वह है
जो इन्हें मिलाता है |
न रात है ,न प्रात ,
सत्य वह है
जो इन्हें जोड़ता है |
वह संगीत में मधुर विराम ,
पावन छंद के मध्य यति है ,
मुखरता के मध्य मौन ,
वासनाओ के विस्फोट के बीच
वह ह्रदय कि शांति है |
सुन्दरता वह है ,जो देखि न जा सके
प्रेम वह है ,जो अकेला रहे
गीत वह है जो ,जिए ,बिना गाये,
ज्ञान वह है जो कभी जाना न जाय |
जो दो प्राणियों के बीच मृत्यु है ,
और दो तूफानों के बीच एक स्तब्धता है ,
वह शून्य ,जहाँ से स्रष्टि आती है
और जहाँ वह लौट जाती है |
वहीं अश्रुबिंदु का अवसान होता है ,
प्रसन्न रूप को प्रस्फुटित करने को
वही जीवन का चरम लक्ष्य है ,
और शांति ही एकमात्र शरण है |
ॐ शांति शांति शांतिः |
हम प्रत्येक आत्मा को आव्हान करें -"उत्तिष्ठत ,जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ,-उठो जागो और जब तक लक्ष्य प्राप्त न कर लो कहीं मत ठहरो |"
उठो!जागो !दौर्बल्य के मोहजाल से निकलो ,कोई वास्तव में दुर्बल नहीं है |आत्मा अनंत ,सर्वशक्तिमान एवं सर्वव्यापी है खड़े हो स्वयम को झकझोरो ,अपने अन्दर व्याप्त ईश्वर का आव्हान करो |
उसकी सत्ता को अस्वीकार मत करो|हमारी जाति पर बहुत अधिक निष्क्रियता ,बहुत अधिक दुर्बलता और बहुत अधिक मोहजाल छाया रहा है और अब भी है |
सच्चा मनुष्य वह है ,जो मूर्तिमंत पौरुष के समान सामर्थ्यशाली हो किन्तु साथ ही नारी के जैसे कोमल अंत करण से युक्त हो तुममे अपने चारों ओर रहने वाले लक्षावधि प्राणियों के प्रति सहानुभूति तो हो किन्तु उनके साथ ही तुम दृढ एवं कर्तव्य- कठोर भी बनो |तुममे आज्ञाकारिता भी अवश्य रहे |भले ही ये बाते तुम्हे परस्पर विरोधी लगे -किन्तु ऊपर से दिखने वाले इन गुणों को अपनाना ही होगा |
स्वामी विवेकानंद जी के भाषण तो जग प्रसिद्द है उनके द्वारा रचित कुछ अंग्रेजी कविताओ का अनुवाद कवितावली पुस्तक में है इसमें सन १८९९ में न्यूयार्क के रिजले मनर में लिखित "peace "नमक कविता का अनुवाद निम्नलिखित है |
" शांति "
देखो ,जो बलात आती है ,
वह शक्ति ,शक्ति नहीं है !
वह प्रकाश ,प्रकाश नहीं है
जो अधेरे के भीतर है ,
और न वह छाया ,छाया ही है
जो चकाचोंध करने वाले
प्रकाश के साथ है |
वह आनन्द है ,
जो कभी व्यक्त नहीं हुआ ,
और अन्भोगा ,गहन दुःख है
अमर जीवन जो जिया नहीं गया
और अनन्त मृत्यु ,जिस पर
किसी को शोक नहीं हुआ |
न दुःख है न सुख ,
सत्य वह है
जो इन्हें मिलाता है |
न रात है ,न प्रात ,
सत्य वह है
जो इन्हें जोड़ता है |
वह संगीत में मधुर विराम ,
पावन छंद के मध्य यति है ,
मुखरता के मध्य मौन ,
वासनाओ के विस्फोट के बीच
वह ह्रदय कि शांति है |
सुन्दरता वह है ,जो देखि न जा सके
प्रेम वह है ,जो अकेला रहे
गीत वह है जो ,जिए ,बिना गाये,
ज्ञान वह है जो कभी जाना न जाय |
जो दो प्राणियों के बीच मृत्यु है ,
और दो तूफानों के बीच एक स्तब्धता है ,
वह शून्य ,जहाँ से स्रष्टि आती है
और जहाँ वह लौट जाती है |
वहीं अश्रुबिंदु का अवसान होता है ,
प्रसन्न रूप को प्रस्फुटित करने को
वही जीवन का चरम लक्ष्य है ,
और शांति ही एकमात्र शरण है |
ॐ शांति शांति शांतिः |
Saturday, January 09, 2010
खोज
शुरू में जब ब्लॉग लिखना शुरू किया था तब उस समय जो विचार आये थे उन्हें कविता का रूप दे दिया था और शीर्षक पाठको पर छोड़ दिया था तब एकमात्र टिप्पणी आई थी और शीर्षक था" खोज "चूँकि अब टिप्पणियों का थोडा लालच आ गया है तो फिर से अपने ब्लॉग कि दूसरी पोस्ट "पोस्ट "कर रही हूँ जस कि तस |
एक राहगीर अमराई में, आम ढूंड रहा था
एक शिक्षक कक्षा में, खास ढूंड रहा था
आम तो दलालों ने पकने रख दिए ,
और खास तो मोबाइल में व्यस्त हो गए|
एक मचुअरा तालाब में मछली ढूंड रहा था
एक पंडित मन्दिर में मूर्ति ढूंड रहा था,
तालाब की मछली ठेकेदार ले गए
और मन्दिर की मूर्ति विढेशी ले गए |
एक धार्मिक सत्संग में धर्म खोज रहा था
एक भूखा लंगर में रोटी ढूंढ़ रहा था
धर्म तो प्रवचन और कथाओं में गुम हो गया
रोटी तो चलते चलते दिल्ली पहुँच गई |
एक साधू जंगल में शान्ति ढूंढ़ रहा था
और मै टीवी समाचार में , समाचार खोज रही थी,
साधू की शान्ति तो पर्यटक ले गए
और मैं समाचार सुनकर मुर्छित हो गई||
आस्था ने बहुत सुंदर शीर्षक भेजा है
तो कविता का शीर्षक है ,
"खोज "
धन्यवाद आस्था
एक राहगीर अमराई में, आम ढूंड रहा था
एक शिक्षक कक्षा में, खास ढूंड रहा था
आम तो दलालों ने पकने रख दिए ,
और खास तो मोबाइल में व्यस्त हो गए|
एक मचुअरा तालाब में मछली ढूंड रहा था
एक पंडित मन्दिर में मूर्ति ढूंड रहा था,
तालाब की मछली ठेकेदार ले गए
और मन्दिर की मूर्ति विढेशी ले गए |
एक धार्मिक सत्संग में धर्म खोज रहा था
एक भूखा लंगर में रोटी ढूंढ़ रहा था
धर्म तो प्रवचन और कथाओं में गुम हो गया
रोटी तो चलते चलते दिल्ली पहुँच गई |
एक साधू जंगल में शान्ति ढूंढ़ रहा था
और मै टीवी समाचार में , समाचार खोज रही थी,
साधू की शान्ति तो पर्यटक ले गए
और मैं समाचार सुनकर मुर्छित हो गई||
आस्था ने बहुत सुंदर शीर्षक भेजा है
तो कविता का शीर्षक है ,
"खोज "
धन्यवाद आस्था
Wednesday, January 06, 2010
कुछ यूँ भी .......
वक्त कि जुराबों में ,अनफिट रहे हम
पत्थरों के शहर में ,शीशा हुए हम|
खुदा कि खुदाई ,सहते रहे हम
पत्थरों को भगवान मान ,पूजते रहे हम|
उन सूनी और अँधेरी गलियों, कि क्या कहें
जब भीड़ भरी सडको पर , तनहा रहे हम|
अहसासों के आँगन में ,आवाज कि खामोशिया
चंदा कि चांदनी, में ढूंढते रहे हम|
सरपट दौडती जिदगी के , चोराहे पर
वक्त ही कहाँ नजरे मिलाने चुराने को दे पाए हम |
पत्थरों के शहर में ,शीशा हुए हम|
खुदा कि खुदाई ,सहते रहे हम
पत्थरों को भगवान मान ,पूजते रहे हम|
उन सूनी और अँधेरी गलियों, कि क्या कहें
जब भीड़ भरी सडको पर , तनहा रहे हम|
अहसासों के आँगन में ,आवाज कि खामोशिया
चंदा कि चांदनी, में ढूंढते रहे हम|
सरपट दौडती जिदगी के , चोराहे पर
वक्त ही कहाँ नजरे मिलाने चुराने को दे पाए हम |
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