बस कुछ यूं ही
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विचारों का दरख़्त
खोखला हुआ चला है
जड़ें भी सिमटने लगी है
मैं महान हूँ
इसी भ्रम में,
पीछे लगी कतार को
झुठला न सके
न मालूम!
इस कतार में से
कितने दरख़्त
बनेंगे?
कितने खजूर बनेंगे?
कितने बोन्साई
बनाये जाएंगे?
दरख़्त बनने की
आपा धापी में
टूटती कतार
सिर्फ घास
बनकर
ओस की बूंदों
को दामन में
भरकर मिटती
जाती है
महान बनने
की कतार!!!!