जीवन के नेराश्य को
जिसने मुझे मुखरित किया
उन क्षणों को ,जिसने मुझे वाणी दी
आत्मप्रशंसा के अभिमान से निवर्त होकर
आत्म विश्वास दीर्घजीवी हो
परिभाषित जिन्दगी की आकांक्षा नही,
ब्व्न्द्रोमे झुझ्ती भावनाए
शोषित होती कल्पनाये ,
गिरकर उठने का साहस ,
एक अहसास दे गया |
Sunday, September 21, 2008
Friday, September 19, 2008
कुछ क्षनिकाए
आकाश की उचाईयो छूने के बाद
सारा जहा मेरा अपना हो गया है
और जमीन से जुड़े रहने की चाह में
मुझसे मेरे अपने जुदा हो गये है
"नीड"
पराये आशियाने में अपना नीड कहा
पराये दर्दो में अपनी पीर कहा
अब तक तो जिए बेखोफ जिन्दगी ,
अब मरने को दो गज जमीन कहा
मंजिल
जिन्दगी से निराश कुछ नवयुवको को देखकर सन२००० मेंयह कविता लिखी थी
तुझे पाने की चाह में ,
अपनी मासूमियत खो बैठे हम |
तेरे नजदीक पहुंचते पहुंचते ,
अपनी इंसानियत खो बैठे हम |
हम भी थे स्कूल के अच्छे बच्चे ,
माँ के सानिध्य में सुस्न्स्कारो में,
प्ले दुलारे |
पिता की आशाओ के तारे
तेरी पथरीली ने प्गदंदियो ने
लहुलुहान कर दिया
तेरी राह के कटीले तारो ने ,
हमे छलनी कर दिया |
निकले थे तुझे खोजने सुंदर से
शहर में,
किंतु
तेरी दम तोड़ती व्यवस्थाओ और
हमरी म्ह्त्वाकंक्षाओ ने
हमे बियाबान दे दिया |
तुझे पाने की चाह में ,
अपनी मासूमियत खो बैठे हम |
तेरे नजदीक पहुंचते पहुंचते ,
अपनी इंसानियत खो बैठे हम |
हम भी थे स्कूल के अच्छे बच्चे ,
माँ के सानिध्य में सुस्न्स्कारो में,
प्ले दुलारे |
पिता की आशाओ के तारे
तेरी पथरीली ने प्गदंदियो ने
लहुलुहान कर दिया
तेरी राह के कटीले तारो ने ,
हमे छलनी कर दिया |
निकले थे तुझे खोजने सुंदर से
शहर में,
किंतु
तेरी दम तोड़ती व्यवस्थाओ और
हमरी म्ह्त्वाकंक्षाओ ने
हमे बियाबान दे दिया |
Tuesday, September 16, 2008
विश्वास
मेरे जेहन में चोकोर पत्थर ,
धागे से बंधा हुआ
मानो मेरे अनगिनत प्रश्नों का उत्तर
रिक्तता और शून्य में खोजता अन्तर
उनींदी आँखों की सोच
खुली आँखों का यथार्थ
ढूंढ़ता एक मकसद ,
एक आयाम
ये मेले ये त्यौहार
न रहे तुम्हारे ,
न रहे मेरे पास
ओपचारिकता के बंधन
टूटते से नज़र आते आज
और उस पत्थर के चोकोरपंन में
दबते से मेरे अहसास
अपनों से दूर होने की सिर्फ़ ,
खुशबु है पास
नजदीकियों ने विश्वासों को तोडा है
अपनों ने फ़िर
ओप्चारिक्ताओ को ओढा है
धागे से बंधा हुआ
मानो मेरे अनगिनत प्रश्नों का उत्तर
रिक्तता और शून्य में खोजता अन्तर
उनींदी आँखों की सोच
खुली आँखों का यथार्थ
ढूंढ़ता एक मकसद ,
एक आयाम
ये मेले ये त्यौहार
न रहे तुम्हारे ,
न रहे मेरे पास
ओपचारिकता के बंधन
टूटते से नज़र आते आज
और उस पत्थर के चोकोरपंन में
दबते से मेरे अहसास
अपनों से दूर होने की सिर्फ़ ,
खुशबु है पास
नजदीकियों ने विश्वासों को तोडा है
अपनों ने फ़िर
ओप्चारिक्ताओ को ओढा है
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