Thursday, April 30, 2009
एक नजर इधर भी
इतने आदि न हो जाए की रोज्मरा की जिन्दगी में हमे भी पार्श्व संगीत बजाना पडे |
खैर यहा बात हो रही थी दूसरी औरत की मेरे घर काम करने वाली बाई देर से ई तो मैंने उससे पूछा ...कोमल - हा यही
नाम है उ सका आज फ़िर देर से आई
उसने कहा -आज 'वो 'आए है तो चाय नाश्ते में देर हो गई
मैंने देखा इतना कहते ही वो शर्मा गई मै गुस्से में थी फ़िर भी उसकी शरमाहट देखकर मेरे होठो पर
मुस्कराहट आ गई पर उपरी गुस्सा दिखाते हुए मैंने कहा -जब तुम्हे छोड़कर वो जा चुका है तो उसकी इतनी आवभगत क्यो करती हो ?
कोमल ने इतना ही कहा -मेरे लडके का बाप है वो |
मै अवाक् रह गई
कोमल के पति ने दूसरी औरत रख ली थी नासिक में वो रेल विभाग में काम करता है कोमल यहा अपने बेटे बहु और दो पोतियों के साथ रहती है वो थोडी सीधी सधी तरह की औरत है देखने में अति साधारण कामh से काम रखने वाली मेहनती औरत |उसका बेटा भी सीधा इमानदार एक दुकान में सेल्समेन का काम करता है |
बडे अचरज की बात है की उसके आदमी ने दूसरी aort रखी है उसके भी तीन शादी शुदा बेटे बेटी है कभी कभी वो भी कोमल के 'मेहमान 'बनकर आते है |कोमल ko उसका पति कभी कभी कुछ रूपये दे देता है हा उसके समाज में उसका कोई विरोध न करे इसके लिए उसने कोमल को एक अवैध कालोनी में छोटा सा मकान नोटरी पर लाकर दे दिया है |और तो और कोमल को भी उस पर गर्व है |
अचानक कोमल के पति को केंसर हो गया कोमल और उसकी सौत ने मुम्बई के रेलवे अस्पताल में दोनों ने मिलकर उसकी सेवा की पर वो बच नही पाया . तक उसको रेलवे घर मिला था अब कोमल अपनी सौत को भी अपने साथ ही रखने लगी
कोमल अपनी पेंशन और अन्य मिलने वाले पैसो के लिया हर महीने १५ दिन में नासिक के चक्कर लगा रही है
उसको आशा है की उसके लडके को उसके पति की जगह पर नोकरी मिलजाए किंतु उसमे एक अड़चन और है
कोमल के पति की एक बीबी और थी जिसके मरने के बाद ही कोमल की शादी हुई थी उससे भी एक लड़का है वो भी कोशिश में है की उसे नोकरी मिल जाए \
मैंने कोमल से कहा -अब तो तुम्हारा आदमी भी मर गया फ़िर तुमने अपनी सौत को अपने साथ क्यो रखा हुआ है ?
उसका जवाब सुनकर मै दंग रह गई |
उसने कहा -वो मेरे आदमी के साथ इतने साल रही जो पैसा मिलेगा उसमे उसका भी तो कुछ हक़ बनता है थोड़ा उसे दे दूंगी ।
और मै ये सोचकर रह जाती हुँ स्त्री का यह कोनसा रूप है ?और हम सब कोनसी स्त्रियों के लिए पुरुषों के ,समाज के खिलाफ मोर्चा उठाकर लड़ने को आतुर है
क्या उस स्त्री के लिए जो प्रेम से जीना चाहती है ?
मै ये जानती हुँ इस एक घटना से सारी महिलाओ की स्थिति का आकलन नही किया जा सकता किंतु इस वर्ग विशेष
की महिलाओ जीवनी लगभग एक सी ही रहती है |
अब आप ही बताये ?
कोमल का पति भाग्यशाली था या उसकी तीनो पत्निया अभागी थी?
ये कथा नही अक्षरश सत्य है |
Wednesday, April 29, 2009
अपनी बात
हमारा जीवन ही पाठशाला है, और कई बार हमारे साथ इतने सुखद अनुभव होते हैं की वो हमारी अंतरआत्मा बस जाते हैंऔर अनजाने ही में वे हमारी प्रेरणा बन जाते हैं बात कुछ चार या पांच साल पुराणी होगी .. मैं तब अपने घर के आसपास कचरा बीनने वाले बच्चों,अपने आसपास नए घर बनाने वाले मजदूरी कर रहे मजदूरों के बच्चों को इकठ्ठा कर उन्हें प्रतिदिन ,एक से दो घंटे पदाने , साफ़ सफाई रखने आदि प्राथमिक चीज़ें बताती थी फिर उन्हें पास ही सरकारी पाठशालाओं में प्रवेश दिलवाने में मदद करती थी इसके लिए उनके माता पिता को राजी करना ,बड़ी टेडी खीर थी खैर वो बात अलग है... इसी दौरान मेरा परिचय बैंक में कार्यरत एक बहन से हुआपरिचय के आदान-प्रदान के दौरान मैं उन्हें अपनी उपलब्धियां गिनानने की कोशिश कर रही थीएक बार मिलने पर उनसे बात करना बहुत अच्छा लगा हमने एक-दुसरे के फ़ोन नंबर आदि लिए .फिर काफी दिनों बाद ,वो मुझे सिटी बस में मिली मेरे आग्रह पर ,मेरे साथ वो घर आई और बड़े संकोच से बोली -- मैं अपने घर अपनी किसी सहेली को भी नहीं बुला सकती क्यूंकि मेरी दादी-सास जात-पात को बहुत महत्व देती है और न ही उन्हें मेरा मेल-जुल किसी से पसंद है नौकरी भी जिन हालत में कर रही हूँ, सिर्फ उनकी शर्तों पर फिर इधर-उधर की बातें हुई ,बातों ही बातों में जिक्र निकल आया ,उन्होंने अपने कामवाली की बेटी की प्राईमरी स्कूल से लेकर,स्नातक की पदाई के लिए ,आर्थिक,शारीरिक ,और मानसिक रूप से सहयोग दिया एक ऐसे वातावरण में जहा इनको स्वयं जीने के लिए खुली सांस नहीं थी उस लड़की के एम्.एस सी के प्रवेश के लिए कॉलेज की प्रिंसिपल से मिलने वो बैंक से छुट्टी ले कर गयी थी ताकि उस लड़की को छात्र-वृत्ति दिला सके और उसकी पाठ्य-सामग्री की उचित व्यवस्था हो सके उनकी इच्छा थी वो लड़की ,पि एच डी कर एक वैज्ञानिक बने
उसके बाद मेरा उस शहर में रहना भी कम हो गया और उन से कभी संपर्क भी नहीं कर पाई किन्तु उनके ईस खामोशी से किये गए कार्य से मेरा हृदय ,उनके आगे नतमस्तक हो गया और मेरे मन ने उनके लिए येही शुभकामना की कि उनका शुभ-संकल्प पूरा हो और मुझे भी जीवन में कुछ विशिष्ट काम करने कि प्रेरणा मिले
Monday, April 27, 2009
तुम रास्तो को नापते हो
वो तुम्हारी
मंजिल नही |
तुम उन
रास्तो पर चलते चलो
वो तुम्हारी फितरत नही |
तुम
रास्तो को तोड़ते हो
वो तुम्हारी
महफिल नही |
इस नापने और तोड़ने
की प्रक्रिया में
तुमने अपना
nagar बसा लिया |
pr
Friday, April 24, 2009
विष-वृक्ष
जखीरा खड़ा कर लिया है मैंने
अपने आसपास
मुखोटे पर मुखोटे
लगाकर
जंग जीत ली है मैंने
आज
मैं कोई अशोक नही
जो शान्ति का संदेश दे जाऊँ
मैं तो विष-वृक्ष की बेल हूँ ...
जो लिपट जाऊँ साल दर साल तुम्हारे साथ
Sunday, April 19, 2009
Friday, April 17, 2009
अपनी बात
अपने चुनावी घोषणा पत्र में सबसे पहला उनका एजेंडा गरीबी हटाने का होता हैचाहे कोई भी पार्टी का मंत्री हो और ये गरीबी हटाना कैसे शुरू करते है अपने घर की इस्तेमाल की हुई की चीजे जो purani हो चुकी है उसे अपने घर मेंkam करने वालेको दान दे देते है dya krke bcha हुआ खाना (पहले तीन दिन तक फ्रीज में रखते है)देते है और कुछ समाज सेवा करने की लालसा होती है तो एक सगठन बनाकर, घर घर जाकर पुराने कपड़े, पुराने बर्तन पुराने बिस्तर ,पुराने खिलोने अदि एकत्र कर बाढ़ पीडितो ,भूकम्प पीडितो या फ़िर गरीबो की बस्तियों में बांटकर अख़बार में फोटो छपवा देते है
हमारी सेवा का utkrisht नमूना देखिये , हमारे घर का म करने वाली सहयोगी अगर अच्छे कपड़े पहन कर ,साफ सुथरे द्गंग से आती है (वो शक्ल सूरत में हमसे बीस ही दिखती हो )तो मन ही मन उसे कोसना शुरू कर देते है देखो झूठे बर्तन साफ करती है पर कितनी बन ठन कर आई है यही से शुरू हो जाती है हमारी दोहरी मानसिकता
हम कभी गरीबो को इन्सान समझते ही नही हम नही चाहते की कोई हमारी बराबरी करे, यही सब कुछ समाज के हर क्षेत्र में लागु हो जाता है और हमारी नेता बनने की प्रक्रिया घर से ही शुरू हो जाती है
हमारी इस चालाकी से गरीब और और गरीब बन जाता है और अमीर और अमीर
Thursday, April 16, 2009
नपुसंक
जीवन है क्षण भंगुर म्रत्यु
है शाश्वत सत्य
करते है फ़िर भी जीते रहने में विश्वास
हम जानते है
कर्म है शान्ति का द्वार
धन है अशांति की जड़
करते है फ़िर भी
भोतिकता में विश्वास
हम जानते है
चुनाव है एक आडम्बर एक छलावा
मतदान है सिर्फ़ चेहरों का बदलाव
करते है फ़िर भी लोकतंत्र में विश्वास
हम जानते है
सामर्थ्य नही है हममे
ये सोचने समझने का
की खून से रंगे हाथो को जिताए
या की रक्त से सने कीचड़ में उगे कमल को खिलाये
हम तो ऐसे समय
हो जाते है अंधे और बहरे
और यही है हमारी नपुंसकता का प्रमाण
और खून से रंगे हाथ बढ़ते ही जाते है ,
और ऐसे ही कमल खिलते ही जाते है
खिलते ही जाते है |
Wednesday, April 15, 2009
कुर्सी की गरिमा
वोट के खरीदारों बहुत उंडेला है विष तुमने
अब तो अम्रत की एक बूंद छलकाओ
कुर्सी की लडाई में घर फूंके कितने ही
राम के नाम पर गंगा में ,
मासूम बहाए कितने ही
विदेशियों ने तो सिर्फ़ सोना लुटा था
तुमने तो नोटों की आंच देकर
अपनों का ईमान जलाया है
धर्म और ईमान के ठेकेदारों
बहुत उंडेला है विष तुमने
अब तो अमृत की एक बूंद छलकाओ
मत इतराओ इस कुर्सी पर बैठकर
अच्छे अच्छे को धराशायी कर देती है ,
चार पहिये, दो हत्ते और एक पीठ वाली
कुर्सी पर शिव सा कंठ और
राम की प्रतिमूर्ति लेकर इस कुर्सी की गरिमा बढाओ
बहुत उंडेला है विष तुमने अब तो अम्रत की एक बूंद छलकाओ
Monday, April 13, 2009
अपनी बात
हमारे देश के हिदुवादी नेता जो अपने चुनावी प्रचार में भरसक स्वामीजी का नाम लेते है अगर उपर्युक्त उक्ति को गहरे से समझकर अपने राजनितिक जीवन का मन्त्र बना ले तो प्रधानमंत्री की कुर्सी को गरिमा प्रदान कर लोकतंत्र को शीर्ष पर पहुंचा सकते है |
एक दुसरे पर शब्दों केबाण चलाना ,एक दसरे पर बेमतलब कीचड़ उछालना इन सब बातो में समय बर्बाद कर अपना स्वयम का ही नुकसान कर रहे है और आने वाली पीढी के लिए एक अंधी खाई ही खोद रहे है |आज मिडिया इतना सशक्त मध्यमहै अपनी बात पहुचाने का तो क्यो न ठोस कार्यक्रम करके सच्ची उपलब्धिया दिखा कर एक इमानदार पहलकर लोकतंत्र का सम्मान कर अपने को भी मजबूत किया जाय |
हम भारतवासी भाग्यवान है जो हमे हमारे देश में सब कुछ कहने की छुट है अधिकार है ,हमारे पास हमारा स्वर्णिम इतिहास है ऋषियों की अम्रत वाणी है |
तो चले इस बार स्वामीजी के कथन का सच्चा अनुसरण करे |
Sunday, April 12, 2009
आम आदमी
दिखती आरपार
खंडित होती अस्मिता
कपड़ो की नुमाइश करती ,
विशव सुंदरी को
लाखो देने को लालायित
बच्चो को शिक्षा खरीद देने की ,
जुगत में दिन भर
कोल्हू के बैल सी फिरती
भारतीय माँ
चुनावो के घोषणा पत्रों में
विद्या उद्योग में
vidhya चली गई
हाशिये पर
तथाकथित आर्थिक मंदी के दौर में
नीची नजरे किए
अपनेही साथी की लाश को
ढोते सवेदना विहीन दोस्त
युवाओ की खोखली
मह्त्वाकक्षाओ को हवा देता
इलेक्ट्रानिक मिडिया
आरोप पर आरोप लगाता
लोकतंत्र
और इन सब को
आश्चर्य से देखता
आम आदमी |
हाशिये विद्या
Wednesday, April 08, 2009
चुनावो का दर्द
होता जा रहा चुनावो का दर्द
उद्योग पतियों के लिए
जिनकी जेबे खाली होती जाती है
चुनाव दर चुनाव
प्रसव पीडा सा दर्द भोगती है
वे नेताओ की गृह्स्वामिनिया जब उन्हें अपने पतियो का
आदर्श
नागरिक आचारण सहन करना पड़ता है
चुनाव दर चुनाव
फोडे सा दर्द दे जाता है
एक निशान छोड़ जाता है
उन सरकारी कर्मचरियों के लिए
जिन्हें चुनावो की ड्यूटी एक टीस दे जाता है
चुनाव दर चुनाव |
वो दिन लद गये
जब चुनावो में ड्यूटी lagne को गर्व मानकर
अधिकारी गर्व से सर उठाता था
और आज ड्यूटी न लग जाय
इसीलिए
नजरे चुराता है
और ड्यूटी लग जाए तो
अपने जनक जननी को ऊपर पहुचाने से भी नही
हिचकिचाता
और हा उसे
तब उसे कोई भी दर्द नही सताता |