दिन तो बीत जाते है ,
रातें रतजगा हो चली है ।
नैन नीर बहाते है ,
अपनों का सपना बन जाने से ।
कब हुआ ,कैसे हुआ ,क्यों हुआ ?
अब ये कहना व्यर्थ लगता है ,
क़ि
"बोया पेड़ बबूल का आम कहाँ से पाओगे "
हमने तो
लगाई थी अमराई
तुम्हारी" हरित क्रांति" ने
उसे" नीम का वन" बना दिया ।
अब वन में वो साधू संत कहाँ ?
जो नीम की औषधि बना देते ,
हमे तो नीम की छाँव भी तसल्ली देती है
क्या करे ?
वो भी योग के साथ साथ
बाजार में बंद डिब्बों में आ गई है
इसीलिए तो ,
दिन तो बीत जाते है
और
रातें रतजगा हो गई है ।