बैल गाडियाँ उबड खाबड़ रास्ते को पार करते हुए रात के करीब ९ बजे गाँव के भीतर प्रवेश कर चुकी थी गाँव में खबर फ़ैल चुकी थी बारात आ गई लाड़ी दुल्ल्व(दूल्हा दुल्हन ) भी आ गये |दुल्हन बड़ी मुश्किल से बैल गाड़ी से नीचे उतर पाई थी दूल्हें राजा तो गाँव में प्रवेश करते ही गाड़ी से कूद पड़े थे दुल्हन को तो घर तक बैलगाड़ी में ही जाना था (दुल्हन जो थी ) साथ में हम उम्र नन्द भी थी जो अभ्यस्त थी बैल गाड़ी में चढने उतरने की इसलिए कोई मुश्किल नहीं |दुल्हन को अपने कपडे जेवर भी सम्भालने थे (वैसे आजकल की तरह कोई डिजाइनर लहंगे नहीं थे )फिर भी बनारसी साड़ी तो भारी ही तो होती है न ?साथ में गाँव की बहुत सारी औरते और बच्चो की निगाहे दुल्हन पर ही लगी थी |
सर पर पल्ला सम्भालते सम्भालते दुल्हन बेहाल उस पर द्वार पर ही बहुत सारी रस्मे |मायके छोड़ने का दुःख अलग |
कोई दबे शब्दों में कह रहा था बिजली आ गई !बाद में दुल्हन को मालूम पड़ा की इसी साल गाँव में बिजली आई थी और दुल्हन को सब भाग्यशाली मान रहे थे की देखो लाड़ी के आने के पहले ही गाँव में बिजली आ गई इस लिए दुल्हन को सब बिजली कहने लगे |
बहुत सारी रस्मो के बाद हंसी मजाक के बाद मंडप में मुह मीठा कराने के बाद दुल्हन को जहाँ आंगन के पास में एक बैठक में बहुत सारी महिला रिश्तेदारों के साथ सुला दिया गया |
दुल्हन माँ, पिता ,दादी,दादा , भाई, बहन सबको याद कर सुबकती रही |
किन्तु सुबह की लालिमा ने, घर की बुजुर्ग महिलाओ ने ,दुल्हन को प्यार से उठाया ढेर सारे आशीर्वाद दिए बलाए ली तो दुल्हन जो बहू बन गई थी रात की बात को पीछे छोड़ सुबह के स्वागत में आतुर हो उठी थी |
सन १९७४ में देशव्यापी ट्रक बस रेल हड़ताल थी १ मई को और इसीलिए मेरी बारात को बैलगाड़ी से आना पड़ा और
उस समय मध्यमवर्गीय परिवारों में कार का प्रचलन बहुत कम था |आज ३८ साल बाद भी अपनी अनोखी बारात और दिवा लग्न (दिन का शादी का मुहूर्त )आज भी हुबहू आँखों में चित्रित है |
बड़ो के आशीर्वाद से और अपने प्रगतिवादी ,प्रयोगवादी सादगीपूर्ण ससुराल परिवार ने मेरे जीवन के ३८ सालो को खुशिया ही खुशिया दी है |
वैसे मजदूर दिवस और महाराष्ट्र दिवस 1st may को होता है और जब शादी के बाद मुंबई रहना हुआ तो हर साल शादी की सालगिरह की छुट्टी मिल ही जाती थी जिसमे बैलगाड़ी के धचके कम ही याद आते थे |गेटवे ऑफ़ इण्डिया और चौपाटी की भेल में बेचारी बैलगाड़ी की यात्रा ?
आइये कुछ गिने चुने छाया चित्र देख लिए जाय |
पाणिग्रहण संस्कार( माँ पिताजी )
वरमाला( पहचानिए )?
जो भी यह चित्र देखता है श ही लेता है की कम से कम दूल्हा कुरता तो पहन लेते ?
अब उस समय हमारे यहाँ रिसेप्शन का रिवाज नहीं था तो तो दीवाल पर जाजम लगा दी और खड़ा कर दिया
हम दोनों को |
दोनों परिवार ख़ुशी से बतियाते हुए न ही समधियो जैसी कोई अकड
,न ही
!लडकी ब्याहने का तनाव
शादी के तीसरे दिन खेत बाड़ी की सैर
और फिर दो महीने बाद मुंबई (goreगाँव )का घर
उस समय मेरे काका ससुर अमेरिका से आये थे शादी में और उनके पास एक मात्र कलर फोटो का केमेरा था जिसमे स्लाइडमें फोटो होते थे |जिसे प्रोजेक्टर के सहारे देखते थे बाद में उन्होंने वही से ये कापिया भेजी थी |
अन्यथा कोई फोटो मिलना मुश्किल ही था क्योकि फोटोग्राफर का खर्चा बजट में नही था |
शादी के बाद एक स्टूडियो में लिया गया चित्र जरुरी है |