कुछ सालो पहले मैंने एक कविता लिखी थी इन्ही भावो को लेकर |
कितनी प्रासंगिक है आज ?
"समझोता "
मेरे घर के आसपास
जंगली घास का घना जंगल बस गया है |
मै इंतजार में हुँ ,
कोई इस जंगल को छांट दे ,
मै अपने मिलने वालो से हमेशा,
इसी विषय पर बहस करता,
कभी नगर निगम को दोषी ठहराता,
कभी सुझाव पेटी में शिकायत डालता,
और लोगो को अपने,
जागरूक नागरिक होने का अहसास दिलाता|
इस दौरान जंगल और बढ़ता जाता,
उसके साथ ही जानवरों का डेरा भी भी जमता गया|
गंदगी और बढ़ती गई
फ़िर मै,
जानवरों को दोषी ठहराता
पत्र सम्पादक के नाम पत्र लिखकर
पडोसियों पर फब्तिया कसता
[आज मै इंतजार में हूँ ]
शायद 'बापू'फ़िर से जन्म ले ले
और ये जंगल काटने का काम अपने हाथ में ले ले|
ताकि मै उनपर एक किताब लिख सकू
किताब की रायल्टी से मै
मेरे " नौनिहालों " का घर 'बना दू
उस घर के आसपास फ़िर जंगल बस गया
किंतु
मेरे बच्चो ने कोई एक्शन नही लिया
उन्होंने उस जंगल को ,
तुंरत 'चिडिया घर 'में तब्दील कर दिया
और मै आज भी शाल ओढ़कर सुबह की सैर को ,
जाता हूँ,
'चिडिया घर 'को भावना शून्य निहारकर
पुनः किताब लिखने बैठ जाता हूँ
क्योकि मै एक लेखक हूँ|