Thursday, September 18, 2014

बस कुछ यूँ ही ----

यादो के साथ पीछे जाना सुखद है ,
और वो सुख प्रत्यक्ष में दंश है।


एक अदद आश्रय पाकर निराश्रय हो  गए हम,
तुम्हारे घर में बेगाने हो गए अपनापन ढूंढते ढूंढते।

आये थे ख़ुशियो के भागीदार बनने ,
खारे  पानी के साथी बनकर रह गए हम ।




Monday, September 01, 2014

निमाड़ का वरत वर्तुळा

आज संतान सातो है  याने शीतला सप्तमी . आज के दिन निमाड़ मालवा में व्रत  वर्तुले  का समापन दिवस है यानि की हरितालिका तीज से से लेकर आज सैलई सात्तो तक निमाड़ी गृहिणी यो का कढिन उपवासों के साथ अपने परिवारों के लिए मंगल कामना करने का व्रत आज पूरा होता है. शीतला माता की पूजा करके ठंडा खाना बनाने से लेकर खाने से  खिलने तक का। हरतालिका तीज  का निर्जला व्रत ,उसी वर्त में में पुरे घर परिवार के लिए खाना बनाना और नियमितता के घर के काम पुरे करना फिर पूजा रात्रि जागरण कर सुबह से गणेशजी के आगमन की तैयारी में लग जाना ,लड्डू बनाना आज तो  लड्डू बना आसान हो गया है पहले तो खलब्बते में कूट कर चूरमे के लड्डू बनाकर गणेशजी को घर लाया जाता था ,उसके बाद ऋषि पंचमी में खेत में जहाँ हल चला हो वहां का कुछ भी नहीं खाना मतलब शककर भी नहीं तालाब में होने  वाला सिंगाड़े के आटे से बनी कोई चीज खाना इस बीच घर परिवार के सारे  काम निबटाना। फिर आई हल षष्ठी( हलछट )याने आज भी खेत का हला हुआ कुछ नहीं खाना पंसार के चांवल खाना पूजापाठ  करना कहानी सुन्ना सुहागन महिला को भोजन कराना।
फिर शाम को अगले दिन शीतला सप्तमी के लिए खाना बनाना जिसमे मीठे परांठे ,नमकीन पराठे , सादी दो पूड की रोटी सुखी सब्जी बनाना। आज तो हम सब अपनी सुविधा और  साधन के चलते पुरियां बना  लेते है।
मुझे आज भी याद है   जब माँ चूल्हे पर घंटो पराठे सकती रहती थी। और हम सब गणेशोत्सव के कार्यक्रम देखककर लौटते तो माँ चूल्हा लीप रही होती थी क्योकि जिस चूल्हे पर शीतला सप्तमी का नैवेद्य बना होता उस दिन वह चूल्हा नहीं जलाया जाता था।
इस व्रत वर्तुले में सभी बहनो को बधाई और अपनी माँ, दादी ,छोटी दादी , ताईयाँ ,काकियाँ , भाभियाँ , बुआओ
सासुमा ,जेठाणी देवरानी सभी को नमन करती हूँ जो अपनी परम्पराओ के साथ रहकर इन व्रतो को सार्थक बनाती है और हमारे जीवन को ऊर्जा से भर्ती है  उतस्वों में प्राण डालती है।
इस  अवसर पर माँ तुम बहुत   बहुत याद आती हो।

Thursday, July 31, 2014

हम सब उसकी संतान है

कितने लोग ईश्वर के अस्तित्व को मानते है ,नहीं मानते सबके अपने अपने तर्क है अपनी आस्था है अपना विश्वास है यह बहस युगो से चली आ रही है और चलती रहेगी । दिन रात समाचारो में अपराध ,बलात्कार हत्याए समाचार देख सुन अच्छा क्या होता है ?मानो घटता ही नही है  बहुत मेहनत     करके भी अपना परिवार का गुजर मुश्किल से कर प् रहे है इसमें कितनी ही महिलाये अपने परिवार के लिए अथक मेहनत करती है सुबह शाम तक ऐसी ही चिकर घिन्नी की तरह घूमती  एक महिला है जो एक ब्यूटी पार्लर में काम करती है जहा वह सुबह ११ बजे से ७ बजे तक जाती है और उसके पहले सुबह तीन घरो में खाना बनाती है और छुट्टी के दिन मालिश का काम करती है और अपने दो बच्चो को अच्छे ?स्कूल  में पढ़ाती है ,उसका पति ड्राइवर है महीने में तीन या चार बार ड्राइवरी करता है और हफ्ते भर शराब पिता है और जब कम पड़  जाते है पत्नी के आगे हाथ फैला  देता है | दोनों ने १२ साल पहले प्रेम विवाह किया था | धर्म परिवर्तन करके सेवा कार्य करने अग्रणी संस्थाओ के ईश्वर को वह नहीं मानता और रात को दाल चावल आटा  नमक सब मिलकर रख देता है सुबह अपनी पत्नी को कहता है बुलाओ तुम्हारे ईश्वर को और उससे कहो -ये सब चीजे अलग करे |

कितने अलग अलग तरह के दुखो से गुजरती होगी यह महिला उसकी इस  तकलीफ को देखकर निशब्द हो जाते है हम जब वो कभी घर आती है मैंने पिछले सात साल में कभी उसको मुस्कुराते हुए नहीं देखा |


Thursday, July 03, 2014

"नाम में क्या रखा है ?"

आज से ४० से ५० साल पहले तक अधिकांश घरो में सात ,आठ ,नौ भाई बहन होना आम बात थी इससे ज्यादा भी हो सकते है और साथ साथ ही गुड्डू ,बड़ा गुड्डू ,छोटा गुड्डू , पप्पू ,मुन्नू ,नन्नू ,बाबा ,बबली ,गुड़िया जैसे ही घर के नाम रखे जाते थे. वो तो भला हो राजकपूर जी का जिनपर फिल्माए गए गीत "मेरा नाम राजू घराना अनाम बहती है गंगा जहाँ मेरा धाम "से घर घर राजू हो गए राजू चाचा ,राजू मामा आज तक चल रहे है। हमारे एक रिश्तेदार थे घर में बुलाये गए  नाम से बच्चो को ज्यादा जानते थे एक बार अपने ही एक बच्चे के एडमिशन के लिए स्कूल गए जब वह बच्चे का नाम लिखने की जगह ,तो नाम ही नहीं मालूम उस समय ५ साल के बच्चे को भी अपना असली नाम नहीं !मालूम उसने पप्पू बता दिया .| पिता श्री ने भी तुरंत नया नामकरण कर दिलीप रख दिया क्योकि उस समय बहुत फेमस थे  हीरो दिलीप कुमार। घर जाकर जन्म पत्री देखि तो उसमे अशोक नाम था । लड़कियों को ज्यादा स्कूल भेजने का प्रचलन नहीं था सो जो नाम घर में वही बाहर भी|  ऐसी एक परिवार में सात बहने थी उनका नाम था ,काजू ,किसमिस ,केसर, बादामी ,इमरती ,जलेबी और बर्फी | बहुए आती तो अगर दूसरे शहर या गांव की होती तो उनका परिचय उनका गांव या शहर ही रहता या मुन्ना की बहु आदि आदि और अगर उसी शहर  की होती तो उनके मोह्हले से उन्हें पुकारा जाता।
ये तो आज बच्चो के के हिसाब से काफी पुरानी बात लगती है. हम आज के १५ साल पहले जिस टाउनशिप में रहते थे वहाँ महिलाओ को भाभीजी ,या मिसेस वर्मा या शर्मा जो भी सरनेम हो उससे ही पुकारा जाता था क्योकि फैक्ट्री की टाउनशिप में फैक्ट्री में काम करने वालो का ही परिवार रहता था और काम करने वाले पुरुष ही थे इसलिए उनके नाम से ही जाना जाता था। आज जब" फेसबुक "जैसा माध्यम हो गया है अपने पुराने साथियो से मिलने का, तो कभी कभी बड़ी कोफ़्त होती है की हमने कुछ बहनो के आलावा और बहनो के नाम क्यों नहीं जाने ?कम से कम नाम मालूम  होते तो उन्हें ढूंढा तो जा सकता है। इसलिए" नाम में क्या रखा है "
इसे हल्के में न लेकर उसके महत्व को पहचानना जरुरी है।

Thursday, March 27, 2014

कौन पिछड़ा कौन आधुनिक ?

चुनाव ,चुनाव ,और सिर्फ चुनाव कि बाते ही चारो ओर लोग  ही लोग पक गये है किन्तु घूमफिरकर वही बाते होने लगती है जयपुर  से इंदौर आते वक्त ट्रैन में आप कहाँ जायेगे ?आप कहाँ जायेगे ?और एक गहरी मुस्कुराहट के बाद चर्चा शुरू आमने सामने वाले महानुभाव अपने अपने प्रदेश के नेताओ कि अपने ढंग से व्याख्या में व्यस्त (हाँ ये बात और है कि आज के नेता कि बात करना कितना महत्व रखता है )एक बुजुर्ग और और एक ३५ से से ३८ साल के युवक कि बातचीत -सबसे बड़ी पार्टी का तो सफाया ही हो गया दीखता है हमारे प्रदेश  में कितनी तरक्की हुई है सड़के ,पानी ,बिजली सब सुगमता से उपलब्ध हो रहे है किसी जमाने में जहाँ पाँच घंटे लगते थे अब दो घंटे में पहुँच जाते है -देखिये नेताजी कि अभी लालसा जाती नहीं है उनकी बेटी ने आत्महत्या कर ली ,बेटा  आजीवन जेल में ,पांव से चल नहीं सकते अपने दल के साथ जाते हुए तिन किलोमीटर पहले ही हेलीकाप्टर मंगा कर वापिस आ गये और उसके बाद ही पुरे दल पर हमला हो गया सभी मारे गये मैंने अपनी किताब पढ़ते हुए उस युवक को देखा जो यह बात उन बुजुर्ग को बता रहा था स्वाभाविक स्वीकृति थी उसके इस कथन में ,और शांत भाव !और बुजुर्ग जो सब कुछ जानकर भी यह प्रकट कर रहे थे मानो वो यह पहली बार सुन रहे थे!  अच्छा ?उसके पहले लगभग वो ,अपना सारा राजनितिक ज्ञान ,अपनी नौकरी में उन्होंने क्या किया ,कितने सेमिनार लिए कितनी समाज सेवा कि सब कुछ बता दिया था | इस बीच ऐ सी थोडा बढ़ गया था उन्होंने अपनी पत्नी ( जो चुपचाप बैठी थी ) को आदेश दिया जरा मफलर, टोपी, स्वेटर  निकाल !दो कही गला नहीं पकड़ ले ?पत्नी ने भी यंत्रवत सभी चीजे निकाल दी फिर ऐ . सी नार्मल हुआ तो उन्होंने फिर सारा सामान निकालकार पत्नी के हाथ में दे दिया | यह क्रम दो बार चला |
इसी बीच  युवक का छोटा बच्चा रोने लगा  और बच्चे को पापा के पास ही आना था और बातचीत का  सिलसिला भी रुक गया |
इतने चुनावी माहौल में गहरे राजनितिक विश्लेषण से अनभिज्ञ साइड कि बर्थ पर एक युवती अपने मोबाईल के साथ समय बिताती बिच में हमे बताती हुई कि गाड़ी कितनी लेट चल रही बताती जा रही थी जो कि उसका भाई दिल्ली से बताता जा रहा था,    वः अपने मायके भोपाल जा रही और देवास में उसके माता पिता उसे लेने आये थे मायके जाने का असीम उत्साह उसके हाव भाव से झलक रहा था हो भी क्यों न ? एक स्त्री कितनी भी बूढी हो जाय उसके मायके का आकर्षण सदैव सर्वोपरि होता है फिर उसकी  शादी को महज डेढ़ साल ही हुआ था ,इतनी दूर जोधपुर और भोपाल कि दुरी उसके लिए युगो के सामान बीत  रही थी |  ,
उसने मुझसे सहज ही पूछ लिया आंटी -आपको जयपुर कैसा लगा मैं तो जयपुर कि कायल हो गई थी |
मैंने उससे पूछा ?जोधपुर कहते है जयपुर से  ज्यादा  सुन्दर है | उसने जवाब दिया -सुन्दर तो है पर जयपुर से २० साल पीछे है और भोपाल से तो तीस साल |
मैंने उससे पूछा किस रूप में तुम पीछे मानती हो ?
मुझे घूंघट निकलना पड़ता है ,पूरा चेहरा ढंका होना चाहिए मेरे मायके से विपरीत माहोल है
हाँ लेकिन हमारे पापाजी (ससुरजी )हमें बहुत प्यार करते है मेरा बहुत ध्यान रखते है किन्तु मेरी इच्छा होती है अपने पापा कि तरह मै  उनसे बात करू ?जो भी बात करनी होती है मम्मीजी  के द्वारा ही कर सकते है |
तो है न पिछड़ापन ?
 मैंने कहा -परम्पराओ को निभाना पिछड़ापन तो नहीं है !
उसका कहना था -हाँ ये तो है और घर में मुझे कोई पाबंदी नहीं मेरे माता पिता सर्विस करते है मई भी शादी के पहले करती थी . ससुरजी ने कहा - बेटा अपनी पढ़ाई आगे बढ़ाओ तुम्हे अभी सर्विस कि जरुरत नहीं है मेरे पति भी यही चाहते है मै आगे पढू और मैंने उसे जारी  रखा है . और घर में सब मेरे जेठ, जेठानी, सास सब बहुत ध्यान रखते है सास जरा उदास देखती है तो अपने बेटे से कहती है बहू को पिज़ा खिलाओ ,चाट खिलाओ
बाहर  ले जाओ |
तब तो तुम्हारा परिवार बहुत प्रगतिशील है मैंने कहा -
अब वो भी   अपना सामान संमहालने में लग गई क्योकि देवास आने वाला था और वो  मुस्कुराते हुए उतर गई उसके उतरने के बाद डेढ़ घंटे का समय उस डिब्बे में ध्यान स्थल कि तरह बीता क्योकि उसकी बाते ,अपने घर का जीवंत वातावरण वर्णन कर हँसते हुए अपनी सोच को कुछ क्षणों में परिवर्तित कर परिवार के साथ सामंजस्य बिठाना उसके आत्मविश्वास कि महक दे गया था |
और चुनाव , नेता , बड़ी बड़ी बाते,आरोप प्रत्यारोप  , देश को बनाते है  ?या ऐसी  फुलवरिया जो फूलती कही और है और खुशबू बिखेरती है वहाँ, वो  जहाँ गूँथ दी जाती है -------

Friday, March 14, 2014

भरत कि आस्था





  मुझे राजनीती में कोई रूचि नहीं  है शुरू से ही, न ही कभी रूचि ली ,किन्तु आजकल टी वि पर, फेस बुक पर वही  रंग बिखरा है तो कुछ छींटे हम पर भी पड़  गए अब थोड़े छीटे पड़े है तो लगता है कुछ समझ भी आने लगी है ?शायद सत्ता का इससे सीधा संबंध है । छोड़िये भी कहा? मैं और कहाँ भारत कि राजनीती? सूर्य को चिराग दिखाने जैसा ही होगा  ?इधर कुछ खास काम  नहीं होने से जब भी खाली  रहती हूँ अपनी थोड़ी सी किताबो को झाड़ लिया करती हूँ झाड़ते झाड़ते उन्हें पढ़ते पढ़ते झाड़  पोंछ आधी  ही रह जाती है, उसी क्रम में आज दादा कि किताब "धुंधले कांच कि दीवार "पढ़ना शुरू किया तो उनका यह ललित निबंध "भरत "मन को छू गया और लगा कि आज भी कितना प्रासंगिक है .यह किताब सन १९६६ में प्रकाशित हुई थी।
प्रश्न जब सर उठाते है -
इस शीर्षक में दादा ने राम ,सीता और भरत को अपनी भावनाओ में पिरोकर विषय को रेखंकित किया है -
                                          "   भरत "
राम के वन में चले जाने  के पश्चात् शोकमग्न और हड़ताल ग्रस्त अयोध्या में आकर भरत सोचते है कि ,--"आखिर यह सब देखना भी मेरे भाग्य में बदा था . जिस व्यक्ति ने स्व्प्न में भी राज्य कि इच्छा नहीं कि ,जिस व्यक्ति ने पिता कि तरह अपने बड़े भाइयो का सम्मान किया ,जिस व्यक्ति ने अपनी माँ और सौतेली माँ में भेद नहीं जाना और जिस व्यक्ति को महलो में रहकर भी ऐश्वर्य कि भूख छू तक नहीं गई उसी के नाम पर यह सब नाटक खेला  गया !
बहुत कुछ सोचने पर भी मैं समझ नहीं पाता ,कि जिस घर में सदा शांति रही ,जहाँ माता से भी बढ़कर पिता कि आज्ञा मानी गई ,जहाँ छोटे बड़ो का सम्मान करते आये जहाँ बड़ो से छोटो को स्नेह मिलता आया ,जहाँ किसी वस्तु तो दूर ,किसी विचार तक को लेकर किसी के चेहरे पर शिकन तक न आई वहाँ यह सब हुआ . कैसे ?किशोरावस्था में भी भाइयो के बीच  कभी लड़ाई नहीं हुई उन्ही भाइयो के बीच" युवराज पद "के लिए विवाद होगा ,इस "विषाक्त अंकुर" का जन्म कहाँ से हुआ ?
         कुछ लोगो का कथन है कि पिता के द्वारा दिए गये वचनो के कारण ही यह दिन देखने को मिला !लेकिन उन वचनो को दिए हुए तो एक अरसा हुआ ,जिस माँ के मन में उन्हें भुनाने के लिए ऐसा हल्का विचार आ सकता है ,उसमे  उसे इतने दिनों तक छुपाने का गांभीर्य कहा से आया ?
            कुछ लोगो का मत है कि दासी के कहने से माँ कि मति मारी  गई !लेकिन जो एक संस्कार सम्पन्न घराने कि राजरानी रही ,जिसे एक आदर्श पति कि पत्नी आदर्श पुत्र कि माता और आदर्श परिवार कि गृहणी होने का गौरव प्राप्त हुआ हो ,उसका एक तुच्छ दासी के बहकावे में आना कहाँ तक न्याय संगत है ?
    इसी बीच एक विचार उनके दिमाग में बिजली कि तरह कोंध जाता है और वे गुनगुनाते  है --

"अरे मैं  भी कैसा पागल हूँ ,एक साधारण सी बात मेरे समझ में नहीं आई ,जिस घर को आदर्श घर बनाने में परिवार ने कोई कसर न उठा रखी  हो उसी घर में" सत्ता "का एक "विषवृक्ष" भी फलता फूलता आया है !उसकी छाया तले सभी सुख और संतोष अनुभव करते आये ,लेकिन उसके विषाक्त फलो कि और किसी ने ध्यान नहीं दिया ?कमजोर से कमजोर व्यक्ति भी अपनी भूख पर विजय प्राप्त कर सकता है" सत्ता कि भूख "पर विजय पाना मुश्किल है । सो अपने घर के आँगन मेंउसी खूबसूरत से दिखने वृक्ष में जब " युवराज पद "का  फल लगा ,तो" राजमाता "खलने कि इस सर्वभक्षी भूख ने ही ममतामयी माँ कि मति को हर लिया | यदि इसका शीग्र इलाज नहीं किया तो समुचा  परिवार छिन्न भिन्न हो जाने  वाला है "|
           और तभी उनकी आँखों में राजसिहांसन को ठुकराकर वन कि रह जाते हुए भगवान राम कि नंगी पगथलियों का चित्र छा जाता है और वे गीली आँखों उन्ही कि खोज  करते हुए वन कि रह चले जाते है |
     कहते है उन्ही पादुकाओं को लेकर उन्होंने भारतवर्ष  की डूबती हुई परिवार व्यवस्था को बचा लिया था  ।
-पंडित रामनारायण उपाध्याय
"धुंधले कांच कि दीवार "


Friday, February 14, 2014

स्नेह का कोई मापदंड नहीं .......

खून के रिश्ते तो अपने ही होते है जिनके लिए पारिवारिक सामाजिक कार्यक्रम होते ही है  और जो इस बहाने से निभाए ही जाते है कितु कोई सिर्फ पाँच या छ्ह मुलाकातो में   इतनी आत्मीयता भर देता है कि मेरा अपना ये  मिथक भी टूट जाता है कि सहेलियाँ ,दोस्त सिर्फ स्कूल कालेज में ही बन पाते है। मेरी उससे सिर्फ पाँच साल पहले एक अध्यात्मिक शिविर में मुलाकात हुई   जहाँ हम दोनों को साथ में रहना था   बस फिर क्या था हमनेअपनी सारी   रात बातो में बाँट ली और सुबह के चार बज गये आश्रम में मंगला आरती का समय हो गया फिर पूरा दिन सारे  सत्रों में हिस्सा लिया और साँझ को विदा हो लिए। उसके कई महीनो तक मिलना नहीं हुआ फिर एक बार फोन पर बात हुई उसको अपने घर कि नपती करवानी थी हमारे कोई परिचित थे उन्होंने उनकी मदद कर दी. अपने पति  कि असामयिक  म्रत्यु   के बाद अपनी दो लड़कियो के साथ वो इंदौर में रह रही थी क्योकि आखिरी में यही पदस्थ हुए थे जिला  चिकित्सालय में वरिष्ठ चिकित्सक के पद पर। अपनी ईमानदारी के कारण उनकी मौत संदिग्ध ही रही जिसके लिए उसने बहुत कोशिश कि बहुत दौड़ धुप कि सच सामने लाने  ले लिए किन्तु दोनों बेटियो कि परवरिश और अपनी नौकरी उसकी व्यस्तता के चलते ज्यादा जानकारी जुटा  नहीं पाई ,इस बीच बड़ी बेटी कि शादी की  वो विदेश में बस  गई छोटी बेटी कि नौकरि मुम्बई में लग गई वो खुद भी अपने स्त्री रोग विशेषज्ञ चिकित्सक के पद से रिटायर्ड हो गई। इस बीच  मेरा रहना भी ज्यादातर बेंगलुरु में  ही रहा मिलना भी नहीं हुआ और न ही कोई बातचीत। अभी पिछले साल अचानक आश्रम में मिलना हुआ न ही कोई शिकवा शिकायत बस स्नेह से मिले और विदा ले ली। एक दिन फोन पर बात कि दीदी!( हम उम्र होने के बाद भी मुझे वो दीदी ही कहती ) आपकी सिस्टर मुम्बई में है मई भी बेटी के साथ वाही रहूंगी मैंने उससे सम्पर्क करवा दिया दोनों भी अच्छी मित्र बन गई पिछले साल अगस्त में इंदौर आई थी बहन भी मैं  भी तब उसने आग्रह कर हमे बुलाया और नाश्ते  के साथ  आलू के परांठे भी पैक कर दिए।
उसके बाद फोन पर ही बात हुई। निशुल्क सबका उपचार और स्नेह के बोल उसके मरीजो के लिए वरदान था।
इसी के तहत ,बहन ने उसके फोन पर बात करनी चाही तब दो दिन बाद उसकी बेटी ने फोन उठाया और कहा -
आंटी आपको मालूम नहीं ?मां तो नहीं रही। बहन ने फोन रख दिया तुरंत मुझे फोन किया अलका दीदी  नहीं रही मैं  भी कुछ बोल ही नहीं सकी । इतनी दूर यह खबर हम दोनों बहनो के लिए स्तब्ध करने वाली थी.
अपनी बेटी के साथ वो अपने पति के केस कि पेशी के लिए ४ तारीख को इंदौर आई और ५ तारीख को ह्रदयगति रुकने के कारण अपनी देह का त्याग कर दिया अपने उस घर में, जिसके लिए उन्होंने करीब १५ दिन पहलेमुझे   फोन किया था ;दीदी आपकी पहचान का कोई वकील हो तो बताइयेगा मैं  अपने दोनों फ्लैट अपनी बेटियो के नाम करवाना चाहती हूँ ,दीदी मैं  आपसे बात करती हूँ तो मुझे लगता है आप मेरे अपने हो। और वही  अपनी, जिसका कि हमारे साथ जयपुर के  रामकृष्ण मंदिर उद्घाटन में जाने  का  टिकिट था हमे बीच में  ही छोड़कर अपना टिकिट लेके   चली गई।
 मेरे पास उसका कोई छाया चित्र नहीं है कितु वो मेरे दिल दिमाग पर ऐसी छाई है कि मैं बार बार अपने  आंसू नहीं रोक पा  रही हूँ .....

Tuesday, February 11, 2014

बस यू ही

 एहसान का नाम मत दो
मै  कोई प्रतिद्वंदी नहीं तुम्हारी
बस  जरा सा सहयोग कर ले 
ये आदत है हमारी .


Wednesday, February 05, 2014

उजाले की ओर

अभी दो दिन पहले द्वितीया तिथि में चाँद एक बारीक़ लकीर सा अपना सोंदर्य बिखेर रहा था . तभी मन में ये विचार आये।


चाँद ने हसिये (दराती )का रूप धरा
सूरज ने बादलों में अपने को ढंका
प्रभात कि बेला में धुंध ने अपना राग छेड़ा
गोधूलि बेला में ,उड़ती रज से अंधकार हुआ
बता ऐ उजाले तुझे  मैं कहाँ  पाऊ ?

(चित्र गूगल से साभार )


Wednesday, January 29, 2014

"भारत कि समृद्धि "

बहुत सी बाते दिमाग   में  चलती रहती है , सन 2008 में जब ब्लॉग लिखने  की शुरुआत की  थी तब ये विचार व्यक्त किये थे   कविता  के माध्यम से, उसमे से कितनी बाते आज भी उतनी ही प्रासंगिक लगती है और कितनी बातो के परिणाम भी देखने को मिल गये है जैसे -आसाराम का पाखंड उजागर होना। टेलीविजन का सच आदि अदि।अभी अभी हम गणतंत्र दिवस मना के बैठे है और लगा कि तंत्र के क्या हाल है ,क्या हाल हो गया है ?
 गणतंत्र दिवस के बाद   कुछ सकल्प ऐसे हो.......

.नेता लोग भाषण देना छोड़ दे |
कवि लोग ताना देने वाली कविता करना छोड़ दे|
मौसम विभाग मौसम की भविष्य वाणी करना छोड़ दे |
धर्म गुरु उपदेश देना छोड़ दे |
इन्सान सपने देखना छोड़ दे|
टेलीविजन समाचार चैनल सनसनी फैलाना छोड़ दे |
टेलीविजन पर धार्मिक सीरियल दिखाना छोड़ दे |
अखबारों के संपादक  सच लिखना छोड़ दे |
भारत के लाखो, करोडो   श्रद्धालु प्रवचनों में जाना छोड़ दे |
गरीबी ,अशिक्षा और बेरोजगारी के नाम पर ,
राजनीती करने वालो,
क्रप्या राजनीती करना छोड़ दे |
माँ बाप अपनी बहू बेटियों को  ,बच्चो को
 टेलीविजन के रियलिटी शो में भेजना छोड़ दे

अर्थशास्त्री बाजार के उतर चढाव की ,
भविष्यवाणी करना छोड़ दे |
ज्योतिषी जीवित रहने के उपाय बताना छोड़ दे |
और अगर हो सके तो शिक्षक कोचिंग क्लास  चलाना छोड़ दे |
शोभना चौरे

Friday, January 03, 2014

"बस अब"

ज़ुबान खामोश है
पर दिल बैचेन है
आँखे ढूँढती है,
समुंदर
डूबने के लिए
अहसासो की चुभन
जीने नही देती
बस अब
कतरा
ज़िदगी की धूप दे दो |


चाँदनी अब
सोने नही देती
बारिश आँसू सूखने नही देती
बसंत सिर्फ़
दर्द
दे जाता है
बस अब
कतरा
जिंदगी की धूप दे दो |
मन के टूटे तारो को
छूटे हुए सहारों को
बादल राग भी
जुड़ा नही पाता
बस अब
एक कतरा
जिन्दगी कि धूप दे दो |

ध्यान और जप के सारथि
आज रथहीन नज़र आते है
योगी भी अर्थ के साथ चलकर
अर्थहीन नज़र आते है

बस अब
कतरा
जिंदगी की धूप दे दो |

शोभना चौरे