स्कूल के दिनों में हिन्दी विषय के अंतर्गत बाबा भारती का घोड़ा की कहानी पढाई जाती थी कहानी का शीर्षक था हार जीत
के लेखक थे सुदर्शन |बाद में टिप्पणी लिखो :में पूछा जाता था इस कहानी से क्या शिक्षा मिली?क्या संदेस देती है ये कहानी ?तब तो रट रट कर बहुत कुछ लिख देते थे और नंबर भी पा लेते थे |कितु न तो कभी बाबा भारती ही बन पाए और न ही कभी ह्रदय परिवर्तन होने वाले डाकू खड्गसिँह को अपने जीवन में उतार पाए |
आज बाबा भारती(नकली ) बहुत है , सुलतान को बेचने वाले ,आलिशान कुटियों में रहने वाले और डाकुओ के साथ रहकर व्यापार करने वाले |
पिछले दिनों से लगातार समाचार आ रहे है नकली खून के बाजार के |
स्तब्ध हूँ, क्षुब्ध हूँ किंतु अब लगता है की सचमुच भारत भगवान के भरोसे ही चल रहा है |
ईमान तो
कब का बेच दिया !
थाली की
दाल रोटी भी चुराकर
बेच दी !
त्यौहार अभी आए नही ?
पकवानों की मिठास ही
बेच दी !
नकली घीं
नकली दूध
नकली मसाले
और अब
नकली खून ?
कौनसी ?
ख्वाहिश मे
तुमने पेट की आग
खरीद ली
तुम भूल रहे हो
आग हमेशा ही जलाती है
तुमने
दाल, चीनी गेहू और
खून
नही जमा किया है ?
तुमने जमा की है
अपने गोदाम मे
इनके बदले
ईमानदार की आहे
मेहनतकश की
बद्ददुआए
प्रक्रति की
समान वितरण प्रणाली को
असमानता मे तब्दील कर
तुमने अपनी भूख
बढ़ा ली है
व्यापार के सिद्धांतो
को तोड़कर
प्रक्रति से
दुश्मनी मोल ले ली है
बेवक्त की भूख
कभी शांत नही होती
Monday, August 24, 2009
Wednesday, August 19, 2009
वट वृक्ष की शोक सभा
नीम ने बुलाई एक आम सभा
वटवृक्ष को श्रधान्जली देने
देश विदेश के पेडो को
संदेश भेजा!
पवन के द्वारा
कुछ पेडो ने आने में
असमर्थता जताई
पवन के ही
द्वारा
कुछ इस अवसर का
इंतजार ही कर रहे थे
बबूल ,आम, इमली ,नारियल आदि -आदि
कई ख्याति प्राप्त पेड़ आये
अपने अपने भाषण
साथ में लेकर
कुछ छोटे छोटे पौधे
भी अपनी उपस्थिति
दर्ज करने आ पहुंचे
सबने वटवृक्ष कि मौत पर
सवेदना प्रकट की
नीम ने कहा -
बरसो मेरा साथ रहा
आज मै अकेला
महसूस कर रहा हूँ ....
पीपल ने कहा -
हम तीनो
ब्रह्मा विष्णु महेश थे
आज सिर्फ ब्रह्मा विष्णु रह गये
और सबने अपनी अपनी
अश्रुपूरित श्रधांजलि
अर्पित की
बूढे बरगद को
शोक सभा संपन्न हुई
बरगद कि जटा के
अंतिम छोरतक
पहुँचते ही सबके
धैर्य का
बांध टूट गया
नीम ने कहा -सदियों तक
इसकी तानाशाही सही
अब मै राजा हूँ !
सारी बीमारिया
दूर करता हूँ मै
और वाहवाही बटोरे ये ?
छोटे पौधे
बोल उठे -
आखिर कब तक?
इसके साये में पलते रहे ?
इसने कभी न
पनपने दिया हमे
चलो !
सदियों का शोषण
ख़त्म हुआ
अपनी जटाओं से सारी
जमीन पर आधिपत्य जमा
रखा था
कुढ़ते कुढ़ते पीपल ने ,
अपनी व्यथा कह डाली
बरगद के पेड़ की
कुछ
कोंपलें फूट रही थी |
और बरगद उन कोपलों
के माध्यम से
अपनी शोक सभा में
दूर -दूर से आये
पेडो को देखकर
हर्षित हो रहा था
उसने अपना जीवन धन्य माना
अपनी कोंपलों को देखकर
फिर से वो लोगो के
दुःख समेटना चाहता था
सबको छांव देना चाहता था
हर राहगीर को
एक ठांव देना चाहता था
जंगल से निकलकर
गाँव में बसा था वो,
कितने ही?
बसंत देखे
उसने अपने चबूतरे के साथ,
कितने ही सच झूठो का
साक्षी बना
फिर न जाने इस गाँव को
क्या हुआ ?
चबूतरा तक उखड गया
और बरगद सूखता गया
कितु जाते हुए पेडो का
वार्तालाप सुनकर
उसका सदियों पुराना
भ्रम टूट गया
उसने अपनी यौगिक क्रिया से
अपने को साध लिया
धरती का पानी लेना बंद
कर दिया
पवन से माफ़ी मांग ली
सूरज कि रौशनी से
अपनी दिशा बदल ली
और अपने साथियों
के फलने फूलने के लिए
अपनी जटाओं
को समेट लिया
और
इस तरह
एक वटवृक्ष
की जिन्दगी
मौन हो गई
सदा के लिए .................
वटवृक्ष को श्रधान्जली देने
देश विदेश के पेडो को
संदेश भेजा!
पवन के द्वारा
कुछ पेडो ने आने में
असमर्थता जताई
पवन के ही
द्वारा
कुछ इस अवसर का
इंतजार ही कर रहे थे
बबूल ,आम, इमली ,नारियल आदि -आदि
कई ख्याति प्राप्त पेड़ आये
अपने अपने भाषण
साथ में लेकर
कुछ छोटे छोटे पौधे
भी अपनी उपस्थिति
दर्ज करने आ पहुंचे
सबने वटवृक्ष कि मौत पर
सवेदना प्रकट की
नीम ने कहा -
बरसो मेरा साथ रहा
आज मै अकेला
महसूस कर रहा हूँ ....
पीपल ने कहा -
हम तीनो
ब्रह्मा विष्णु महेश थे
आज सिर्फ ब्रह्मा विष्णु रह गये
और सबने अपनी अपनी
अश्रुपूरित श्रधांजलि
अर्पित की
बूढे बरगद को
शोक सभा संपन्न हुई
बरगद कि जटा के
अंतिम छोरतक
पहुँचते ही सबके
धैर्य का
बांध टूट गया
नीम ने कहा -सदियों तक
इसकी तानाशाही सही
अब मै राजा हूँ !
सारी बीमारिया
दूर करता हूँ मै
और वाहवाही बटोरे ये ?
छोटे पौधे
बोल उठे -
आखिर कब तक?
इसके साये में पलते रहे ?
इसने कभी न
पनपने दिया हमे
चलो !
सदियों का शोषण
ख़त्म हुआ
अपनी जटाओं से सारी
जमीन पर आधिपत्य जमा
रखा था
कुढ़ते कुढ़ते पीपल ने ,
अपनी व्यथा कह डाली
बरगद के पेड़ की
कुछ
कोंपलें फूट रही थी |
और बरगद उन कोपलों
के माध्यम से
अपनी शोक सभा में
दूर -दूर से आये
पेडो को देखकर
हर्षित हो रहा था
उसने अपना जीवन धन्य माना
अपनी कोंपलों को देखकर
फिर से वो लोगो के
दुःख समेटना चाहता था
सबको छांव देना चाहता था
हर राहगीर को
एक ठांव देना चाहता था
जंगल से निकलकर
गाँव में बसा था वो,
कितने ही?
बसंत देखे
उसने अपने चबूतरे के साथ,
कितने ही सच झूठो का
साक्षी बना
फिर न जाने इस गाँव को
क्या हुआ ?
चबूतरा तक उखड गया
और बरगद सूखता गया
कितु जाते हुए पेडो का
वार्तालाप सुनकर
उसका सदियों पुराना
भ्रम टूट गया
उसने अपनी यौगिक क्रिया से
अपने को साध लिया
धरती का पानी लेना बंद
कर दिया
पवन से माफ़ी मांग ली
सूरज कि रौशनी से
अपनी दिशा बदल ली
और अपने साथियों
के फलने फूलने के लिए
अपनी जटाओं
को समेट लिया
और
इस तरह
एक वटवृक्ष
की जिन्दगी
मौन हो गई
सदा के लिए .................
Saturday, August 15, 2009
स्वतन्त्रता दिवस पर विनती
पूरे बाजार में तिरंगे हर रूप में कपडे में, प्लास्टिक में उपलब्ध है |
बस नही है तो सिर्फ़ दिलो में |
बहुत कुछ लिखा जा चुका है १५ अगस्त पर |बहुत कुछ भाषणों में कहा जायगा एक रस्म की तरह |
बस एक अभियान हो ,१६ अगस्त को यहाँ वहा बिखरे प्लास्टिक के झंडो को समेट कर हम उन्हें पैरो में आने से बचा सके |
स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाये |
क्या?
वेसा रोमांच
,वेसी सिहरन दे पायेगे कभी?
बस नही है तो सिर्फ़ दिलो में |
बहुत कुछ लिखा जा चुका है १५ अगस्त पर |बहुत कुछ भाषणों में कहा जायगा एक रस्म की तरह |
बस एक अभियान हो ,१६ अगस्त को यहाँ वहा बिखरे प्लास्टिक के झंडो को समेट कर हम उन्हें पैरो में आने से बचा सके |
स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाये |
झंडे की खुशबु
बचपन में जब
केले का आधा टुकडा मिलता ,
सेब की एक फांक मिलती
तो उसका स्वाद अमृत था
आज के दर्जनों केलो में ,
किलो से स्टीकर लगे सेबों में,
वो मिठास नही
एक फहराते हुऐ झंडे को निहारने में
जो धड़कन थी ,
जो रोम रोम की सिहरन थी
वो गली में बिकते हुऐ
तीन रंग की
प्लास्टिक की पन्नी
चोकोर आकार लेते हुऐ
जो कभी कार में सजते है
जो कभी गमले में खोंस दिए जाते है
जो कभी एक सालके बच्चे के हाथ में
दे दिया जाता है
उसका मन बहलाने के लिए ,
वो तीन रंग
केले का आधा टुकडा मिलता ,
सेब की एक फांक मिलती
तो उसका स्वाद अमृत था
आज के दर्जनों केलो में ,
किलो से स्टीकर लगे सेबों में,
वो मिठास नही
एक फहराते हुऐ झंडे को निहारने में
जो धड़कन थी ,
जो रोम रोम की सिहरन थी
वो गली में बिकते हुऐ
तीन रंग की
प्लास्टिक की पन्नी
चोकोर आकार लेते हुऐ
जो कभी कार में सजते है
जो कभी गमले में खोंस दिए जाते है
जो कभी एक सालके बच्चे के हाथ में
दे दिया जाता है
उसका मन बहलाने के लिए ,
वो तीन रंग
क्या?
वेसा रोमांच
,वेसी सिहरन दे पायेगे कभी?
Thursday, August 13, 2009
विनती
श्री कृष्ण शरणम् ममः
"जन्माष्टमी की शुभकामनाये "
(-इमेज सोर्स -कृष्ण . कॉम )
यमुना जी
"जन्माष्टमी की शुभकामनाये "
आज एक पुरानी पोस्ट फ़िर से दे रही हूँ |
लताओं में ,कुंजो में .गलियों में ,
,.यमुना की लहरों में
मुरली की मोहक तान छोड़ गये तुम
राधा को गोपियों को ,ग्वालो को
नन्द बाबा ,माता यशोदा को
कैसी टीस दे गये तुम
संहारक .रक्षक राजा ओर गीता के उपदेशक बनकर
संसार में महान बन गये तुम
माखन की स्निग्धता ,कोमलता तुम बिन नही
मिश्री की मिठास तुम बिन नही
आओ कृष्ण एक बार फ़िर आओ
पुनः स्रष्टि को जीवंत बना जाओ
प्रीत की पुकार सुन लो ,
कठोर न बनो श्याम ,ये तुम्हारा स्वभाव नही ,
तुम पर कोई आक्षेप करे
ये मुझे मंजूर नही
आओ कान्हा पुनः
इस जग को सुंदर बना जाओ
,.यमुना की लहरों में
मुरली की मोहक तान छोड़ गये तुम
राधा को गोपियों को ,ग्वालो को
नन्द बाबा ,माता यशोदा को
कैसी टीस दे गये तुम
संहारक .रक्षक राजा ओर गीता के उपदेशक बनकर
संसार में महान बन गये तुम
माखन की स्निग्धता ,कोमलता तुम बिन नही
मिश्री की मिठास तुम बिन नही
आओ कृष्ण एक बार फ़िर आओ
पुनः स्रष्टि को जीवंत बना जाओ
प्रीत की पुकार सुन लो ,
कठोर न बनो श्याम ,ये तुम्हारा स्वभाव नही ,
तुम पर कोई आक्षेप करे
ये मुझे मंजूर नही
आओ कान्हा पुनः
इस जग को सुंदर बना जाओ
(-इमेज सोर्स -कृष्ण . कॉम )
यमुना जी
Wednesday, August 12, 2009
मेरा सच
मेरा सच !
तुम्हारे तोहफों से मुझे
बहला न सका ?
मेरा सच!
तुम्हारे त्यागो से
तप न सका ?
मेरा सच !
तुम्हारी ममताओ को
समझ न सका ?
मेरा सच!
तुम्हारे विश्वासों को
अखंड रख न सका ?
मेरा सच !
मेरे ही झूठे वादों से
तुम्हे लुभा न सका ?
मेरा सच !
अद्वैत के आवरण से भी मुझे
ढँक न सका ?
मेरा सच!
मेरे ही मित भाषणों से
मिट न सका ?
मेरा सच !
मेरे लौकिक कि खातिर
तुम्हारी अलौकिक को परख न सका?
मेरा सच!
बीज डालने कि प्रक्रिया में
तुम्हारी उर्वरा शक्ति को पहचान न सका?
मेरा बौना सच!
लील गया
वटवृक्ष कि जटाओं को
झुक न सका ?
और
ढूंढ़ता रहा
कन्दराओ में
गुफाओ में
मेरे सच को!
किन्तु मै वन्य जीवन का
आदी
वन्य जगत का
प्राणी ही रहा
छुपा न पाया
मनुष्य जीवन के
आवरण में
अपने भीतर के सच को .................
तुम्हारे तोहफों से मुझे
बहला न सका ?
मेरा सच!
तुम्हारे त्यागो से
तप न सका ?
मेरा सच !
तुम्हारी ममताओ को
समझ न सका ?
मेरा सच!
तुम्हारे विश्वासों को
अखंड रख न सका ?
मेरा सच !
मेरे ही झूठे वादों से
तुम्हे लुभा न सका ?
मेरा सच !
अद्वैत के आवरण से भी मुझे
ढँक न सका ?
मेरा सच!
मेरे ही मित भाषणों से
मिट न सका ?
मेरा सच !
मेरे लौकिक कि खातिर
तुम्हारी अलौकिक को परख न सका?
मेरा सच!
बीज डालने कि प्रक्रिया में
तुम्हारी उर्वरा शक्ति को पहचान न सका?
मेरा बौना सच!
लील गया
वटवृक्ष कि जटाओं को
झुक न सका ?
और
ढूंढ़ता रहा
कन्दराओ में
गुफाओ में
मेरे सच को!
किन्तु मै वन्य जीवन का
आदी
वन्य जगत का
प्राणी ही रहा
छुपा न पाया
मनुष्य जीवन के
आवरण में
अपने भीतर के सच को .................
Tuesday, August 04, 2009
रक्षा बंधन
रक्षा बंधन के पवित्र अवसर पर सभी भाई बहनों को हार्दिक बधाई एवम शुभकामनाए |
जो इन कुछ सालो में महसूस किया है उसे ही लिख दिया है |
राखी के चमकीले बाजार में
रिश्तो की गर्माहट
कहीं खो गई है
मिठाइयों से भरे बाजार में
रिश्तो की मिठास
कहीं खो गई है
उपहारों से अटे हुए
बाजारों में
नेग और शगुन की रस्म
कहीं खो गई है
एकल परिवार की
विवशता में
भाई -बहनकी
जोड़ी
कहीं खो गई है
वंश बढ़ाने की चाह में
बेटी
कहीं कहो गई है
इसीलिए
भाई की सुनी कलाई
रो रही है
तो आओ स्नेह के बंधन को
पुनर्जीवित कर
रिश्तो की मिठास से
आत्मसात कर लें
बेटियों को
इस धरती की
रौनक बनाकर
स्नेह के बंधन को
और मजबूत कर लें ..........
जो इन कुछ सालो में महसूस किया है उसे ही लिख दिया है |
राखी के चमकीले बाजार में
रिश्तो की गर्माहट
कहीं खो गई है
मिठाइयों से भरे बाजार में
रिश्तो की मिठास
कहीं खो गई है
उपहारों से अटे हुए
बाजारों में
नेग और शगुन की रस्म
कहीं खो गई है
एकल परिवार की
विवशता में
भाई -बहनकी
जोड़ी
कहीं खो गई है
वंश बढ़ाने की चाह में
बेटी
कहीं कहो गई है
इसीलिए
भाई की सुनी कलाई
रो रही है
तो आओ स्नेह के बंधन को
पुनर्जीवित कर
रिश्तो की मिठास से
आत्मसात कर लें
बेटियों को
इस धरती की
रौनक बनाकर
स्नेह के बंधन को
और मजबूत कर लें ..........
Monday, August 03, 2009
निर्सग्धाम की यात्रा
पि छले साल अगस्त महीने में हम लोग बेंगलोर से कुर्ग गये थे |
रास्ते में निसर्गधाम है, जो अपने नाम के अनुरूप ही अपने नाम को सार्थक करता है |चारो और हरियाली ही हरियाली लम्बे लम्बे बांस के पेड़ |जब हवा चलती तो आपस में वे टकराते तो बडी ही मदमस्त सी आवाज होती |रिमझिम रिमझिम बारिश कि फुहारे कुल मिलकर प्रक्रति का खुबसूरत नजारा|
पर्यटको के लिए इस जगह पर पहुंचने के लिए कावेरी नदी पर एक झूलता सा पुल बनाया है , पूल से नीचे देखने पर ऐसा लगता था मानो यमनोत्री कि सैर कर रहे हो |यमुना कि तरह कावेरी कलकल बह रही थी|
नदी को देखने के लिए थोडा नीचे उतरना पड़ा उबड़ खाबडही रास्ता था फिसलन भी बहुत थी |पर जैसे ही नदी के पास पंहुचे सारा डर छूमंतर हो गया |नदी का अप्रतिम सौन्दर्य सामने था |
जी हाँ !ये चूहे नही ?खरगोश है रंग बिरंगे |जैसे ही वहां के कर्मचारी ने एक टोकनी भरकर बंद गोभी के पत्ते डाले
बड़ी फुर्ती से सारे खरगोश अपने दडबे से बाहर आए और टूट पडे अपने भोजन पर |हम तारो से लगी फेन्सिग के बाहर से उनके ये करतब देख आनन्दित हो देखते रहे |
अपना खाना (ककडी )देखकर एक हिरन चौरे जी के पास आते हुए |
मेरे मन के भावो ने कुछ शब्दों का आकर ले लिया -
चंचल नदी
वो बड़े बड़े और घने पेड़
टहनिया वो डालिया
नदी कि हर लहर को चूमने को व्याकुल
और पेड़ अनायास ही
आनन्दित हो जाता हो
टहनियों को अपनी डालियों को
और झुका देता
चंचल नदी भी कहाँ
मानने वाली थी
वो कभी आलिगन में आती
कभी अपनी कुछ लहरों के साथ
यूँ ही इठलाकर
आगे बढ़ जाती
कभी लहरों पर
चमकते सूरज को ही
पेडो कि डालियाँ
लहर मान लेती
उनकी इन अठखेलियों को देख
सूरज भी अपनी किरने
और तेज कर देता
तब पेड़ भी अपनी
छेड़छाड़ बंद कर देता
और नदी भी अपना शांत और सौम्य
रूप धर लेती ....................
shobhana
रास्ते में निसर्गधाम है, जो अपने नाम के अनुरूप ही अपने नाम को सार्थक करता है |चारो और हरियाली ही हरियाली लम्बे लम्बे बांस के पेड़ |जब हवा चलती तो आपस में वे टकराते तो बडी ही मदमस्त सी आवाज होती |रिमझिम रिमझिम बारिश कि फुहारे कुल मिलकर प्रक्रति का खुबसूरत नजारा|
पर्यटको के लिए इस जगह पर पहुंचने के लिए कावेरी नदी पर एक झूलता सा पुल बनाया है , पूल से नीचे देखने पर ऐसा लगता था मानो यमनोत्री कि सैर कर रहे हो |यमुना कि तरह कावेरी कलकल बह रही थी|
नदी को देखने के लिए थोडा नीचे उतरना पड़ा उबड़ खाबडही रास्ता था फिसलन भी बहुत थी |पर जैसे ही नदी के पास पंहुचे सारा डर छूमंतर हो गया |नदी का अप्रतिम सौन्दर्य सामने था |
जी हाँ !ये चूहे नही ?खरगोश है रंग बिरंगे |जैसे ही वहां के कर्मचारी ने एक टोकनी भरकर बंद गोभी के पत्ते डाले
बड़ी फुर्ती से सारे खरगोश अपने दडबे से बाहर आए और टूट पडे अपने भोजन पर |हम तारो से लगी फेन्सिग के बाहर से उनके ये करतब देख आनन्दित हो देखते रहे |
अपना खाना (ककडी )देखकर एक हिरन चौरे जी के पास आते हुए |
मेरे मन के भावो ने कुछ शब्दों का आकर ले लिया -
चंचल नदी
वो बड़े बड़े और घने पेड़
टहनिया वो डालिया
नदी कि हर लहर को चूमने को व्याकुल
और पेड़ अनायास ही
आनन्दित हो जाता हो
टहनियों को अपनी डालियों को
और झुका देता
चंचल नदी भी कहाँ
मानने वाली थी
वो कभी आलिगन में आती
कभी अपनी कुछ लहरों के साथ
यूँ ही इठलाकर
आगे बढ़ जाती
कभी लहरों पर
चमकते सूरज को ही
पेडो कि डालियाँ
लहर मान लेती
उनकी इन अठखेलियों को देख
सूरज भी अपनी किरने
और तेज कर देता
तब पेड़ भी अपनी
छेड़छाड़ बंद कर देता
और नदी भी अपना शांत और सौम्य
रूप धर लेती ....................
shobhana
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