ईश्वर को याद करने के,उसकी आराधना करने के हरेक व्यक्ति के अपने तरीके होते है। अपनी माँ को हमेशा पूजा के बजाय पाठ करते ही देखा क्योकि घर के देवी देवताओ कि पूजा सिर्फ दादाजी ही करते थे घर कि महिला का पूजा घर उसका रसोईघर था ,जब माँ अपने कर्त्तव्यों से निवृत हुई तो पठन पाठन को ही अपनी पूजा माना, जिसमे उनकी दैनिक प्रातः संस्कृत में गाई गई प्रार्थना घर के वातावरण को मंदिर बना देती।
उनके इस नियम में शुचिता का कोई खास महत्व नहीं था,और जब विदा ली हम सबसे तो नर्मदा किनारे अपना बचपन बिताने वाली माँ ने बस में नर्मदाष्टक बोलकर खंडवा- इदौर के रास्ते में माँ नर्मदा के दर्शन कर अपने को माँ को समर्पित कर दिया फूलो कि तरह। आज एक पारिवारिक कार्यक्रम में इसी तरह से चर्चाये चल रही थी सबकी अपनी अपनी पूजा के बारे में और उसके फल के बारे में, हम मध्यमवर्गीय लोगो कितनी भी गीता पढ़ ले पर अपने कर्म, फल के साथ ही जोड़ते है, मेरी दादी चाय पीती थी उसके छीटे भी भगवान को अर्पण करती थी ,इतने में एक भाभी बोल उठी मेरी माँ सुबह से घूमने निकलती और ढेर सारे फूल तोड़ कर लाती है बरसो से ,हम सब कहते- इतने फूल क्यों चढ़ाती हो ?वो कहती -फूलो कि तरह जाउंगी खुशबु बिखेरती बिना किसी को तकलीफ दिए। ईश्वर ने उनके फूल भी स्वीकार कर लिए।