Sunday, November 24, 2013

बाबूजी कि स्मृति में .....


आज25 नवम्बर के दिन बाबूजी कि चौतीसवी पुण्यतिथि है ,"बाबूजी " शब्द कहते हुए एक पूरा युग बीत  जाता है आँखों के  सामने । ५१ साल कि छोटी सी आयु में अपने जीवन को सार्थक बनाया उन्होंने | छोटी सी उम्र में नौकरी कर परिवार ,समाज ,कि जिम्मेवारी निबाहते हुए पढाई जारी रखते हुए प्राध्यापक पद पर  पहुंचकर शहर कि सांस्कृतिक ,साहित्यिक गतिविधियो को  मधुरता से गतिमान बनाया,  इंदौर आकाशवाणी पर जब उनकी कोई कविता या या गद्य प्रसारित होता पूरा मोहल्ला तन्मयता से उनकी मधुर वाणी कि मधुरता में डूब जाता और हफ्तो उसपर चर्चा चलती रहती । संयोग से बाई (माँ )बाबूजी कि पुण्यतिथि एक ही माह में आती है । आज भी उस दिन को भुला नहीं पाती जब  उनके नहीं होने का समाचार सुना था तब मुझे अहसास हुआ था कि" पैरो तले जमीन खिसकने "का क्या अर्थ होता है ।
हम सभी भाई बहन शोभना चौरे ,साधना चौरे ,कामना बिल्लोरे ,आशीष उपाध्याय ,चेतना डोंगरे कि और से
अनेकानेक प्रणाम |
"बाबूजी" कि स्मृति में उन्ही कि एक कविता  जो  उन्होंने  सन १९७७ में लिखी थी जो आजकि राजनीती के परिप्रेक्ष्य आज भी उतनी ही प्रासंगिक है |
एक कवि सम्मेलन में स्वर्गीय  बाबूजी नारायण उपाध्याय 

इतिहास बोध 

इतिहास अपने को
 दोहराता है ,सही 
किन्तु पात्र नहीं 
और न घटनाये
केवल वृत्तियाँ 
जो बदलती नहीं 
कोई माँ 
अब भी मांगती है 
पुत्र के लिए  राज्य
 और राम को 
अरण्य कष्ट 
पर आवश्यक नहीं 
भरत  को
श्रध्धा हो राम पर 
या उन मूल्यों पर 
जिनके लिए राम 
राम है सदियों से 
यह भी आवश्यक नहीं
कि हर बार 
सीता ही निमित्त हो 
युग के निर्णायक युद्ध का 
कौन जाने सत्य के लिए 
भरत  से लड़ना पड़े 
राम को 
या राम के लिए 
कोल ,किरात ,निषाद 
और वानर जैसे 
 निरीह जन को 
मोह ध्रतराष्ट्र का हो 
या कैकयी का 
अंत सबका होता है वही 
इतिहास अपने को
 दोहराता है, सही ...
-नारायण उपाध्याय


Monday, November 11, 2013

स्त्रियो का संसार ,आधी आबादी का संसार

स्त्रियो का संसार ,आधी आबादी का संसार
आज  समाज के हर क्षेत्र में आधी आबादी का महत्वपूर्ण योगदान है |
महानगरो में ,बड़े शहरो में ,छोटे शहरो में अपने कार्यो के अनुरूप महिलाये पुरस्कृत होती है और ये हम सबके लिए गौरव कि बात है किन्तु अपने सिमित साधनो में ,विपरीत परिस्थियो में भी छोटे शहरो कि कस्बो कि ,आधी आबादी निरंतर अपना पूरी क्षमता के साथ समाज को नये आयाम दे रही है चाहे वो पुरस्कृत न होती हो ?न ही कोई संस्था से जुडी हो? ऐसे ही एक स्त्री अपने घर संसार को चलाते हुए अपनी अध्यापन कार्य को बख़ूबी निबाहते हुए अपने इर्द गिर्द कि महिलाओ को एकत्र कर ,उनकी क्षमता को ,उनकी योगयता के अनुसार उन्हें अपने आत्मविश्वास के साथ ,जीवन जीने कि प्रेरक बनी है और इन्ही के साथ समय चुराकर कागजो में अपनी भावनाओ को कलम के द्वारा उकेरने कि भी भरपूर कोशिश कर रही है उसी टुडे मुड़े कागज से ये कविता उभरी है भरपूर सवेदना के साथ कीर्ति भट्ट ने इस समाज से सिर्फ एक विनती की है ...



"बेटी कि पुकार "

दो आँगन कि खुशियाँ हूँ मैं
अपनी लाड़ली बिटिया हूँ मैं
कात्यायनी ,मैत्रैयी सी विदुषी हूँ मैं
उर्मिला सीता सी धर्म परायण हूँ मैं
मुझे हवस भरी नजरो से देखने वालों
तुम्हारे आँगन कि भी शोभा हूँ मैं
मत अपनी पशुता का परिचय दो बार बार
मेरे अस्तित्व को न करो यूं तार  तार
जन्म लिया जिस कोख से ,उसे न करो शर्मसार
माँ ,बहन  , पत्नी के रूप में मैं ही देती हूँ प्यार
न मेरी आत्मा को करो तिरस्कार
न हो सकेगा सृष्टि का विस्तार
मैं ही हूँ जीवन का आधार ,मैं ही हूँ जीवन का आधार --------
कीर्ति भट्ट
देवास म. प्र .