Monday, May 13, 2013

जीवन संध्या

 मै  नहीं जानती ये कविता कैसे बन कैसे बन गई ?एक क्षण कुछ महसूस किया और अगले एक मिनिट में
यह रचना बन गई |


घर में रखे पुराने सामान की तरह
चमकाए जाते है, कभी कभी वो
आज निर्जीव ही सही
कभी जीवन्तता थी उनमे
महकता था उनकी सांसो से घर
चहकता  था उनके बोलों से घर
गूंजते थे अमृत वाणी  से  मंत्र
सौंधी खुशबू  से महकती थी रसोई
भरे जाते थे कटोरदान ,पड़ोसियों के लिए 
किससे कहे ?कैसे कहे ?
निर्जीव क्या बोलते है ?
उनकी सारी खूबियों पर है प्रश्न चिन्ह ?
बिताते है इस उक्ति के सहारे
वो जीवन की शाम
"कर लिया सो काम ,भज लिया सो राम "|