मैं कोई हस्ती नही
कि प्रणाम लूँ सबसे
अमावास कि घोर रात्रि को
उज्जवल करने मेंभी ,
मैं असमर्थ
तब तुम ही , अपनी कपकपाती लो से
अंधेरे को दूर करते हो
और इसी लिए सदैव
पूजनीय बन जाते हो तुम
लाख बिजली कि लडिया जगमगाए
पर सुदूर एक गाँव में ,
ज़िन्दगी का आभास कराते हो तुम
और उसी दीप को प्रणाम करते हुए ,
दीपावली के इस पर्व पर ,
अनेक शुभकामनाएं और बधाई
Tuesday, October 20, 2009
Thursday, October 08, 2009
बस कुछ यूँ ही
कभी कभी मन असहज हो जाता है, तब बहुत कुछ उमड़ घुमड़ कर आता है बेतरतीब सा उसे समेटना नही चाहता मन |
तो बस कुछ यू ही अहसास ताजा हो जाते है .........
वो छोड़ जाते है रोनके
हम तो शून्य भी साथ ले जाते है |
कहने को जिन्दगी हंसती रही
पर आँखों में आंसू तैर जाते है |
चुराते है दिल वो ऐसे
धडकन के लिए भी मोहताज हो जाते है |
अब तू ही बता दे ओ आसमा
किस गली में वो ठहर जाते है |
माना की चाँद आज रौशनी दे गया
सितारे ही सदा साथ निबाह जाते है \
बरसो बरस साथ देने का वादा करने वाले
कुछ ही पल में अकेला छोड़ जाते है \
तो बस कुछ यू ही अहसास ताजा हो जाते है .........
वो छोड़ जाते है रोनके
हम तो शून्य भी साथ ले जाते है |
कहने को जिन्दगी हंसती रही
पर आँखों में आंसू तैर जाते है |
चुराते है दिल वो ऐसे
धडकन के लिए भी मोहताज हो जाते है |
अब तू ही बता दे ओ आसमा
किस गली में वो ठहर जाते है |
माना की चाँद आज रौशनी दे गया
सितारे ही सदा साथ निबाह जाते है \
बरसो बरस साथ देने का वादा करने वाले
कुछ ही पल में अकेला छोड़ जाते है \
Sunday, October 04, 2009
एक निर्धन ब्राह्मण " लघु कथा"
आप सभी लोगो का ह्रदय से धन्यवाद करती हूँ जो आपने मेरी लिखी कहानी "सुख की पाती "को पसंद किया और अपने अमूल्य विचारो से उसे सम्मान दिया |ये कहानी मैंने तीन साल पहले लिखी थी |
आप सभी के प्रोत्साहन और मार्ग दर्शन से प्रेरित होकर एक लघु कथा पोस्ट कर रही हूँ |
"एक निर्धन ब्राह्मण "
पंडित विष्णु प्रसादजी के घर के सामने बिलकुल नई सी दिखने वाली कार पिछले दो दिनों से खडी थी |अधिकतर तो पंडितजी को हमेशा अलग अलग तरह कि कारों में आते जाते देखा है , जिन्हें भी पूजा करवाना वे ही आकर ले जाते|और समय पर घर छोड़ जाते |
गली के बाहर से हार्न बजता और पंडितजी अपनी सजी धजी वेशभूषा रेशमी धोती, रेशमी कुरते में हाथ में पोथियों का झोला लेकर निकल पड़ते |अडोसी पडोसी भी उन्हें देखने का लोभ संवरण नही कर पाते |कहाँ तो पंडितजी एक मटमैली धोती पहने हाथ में छाता लिए (जो कि कोई यजमान कि तेरहवी में दान में मिला था )पसीना पोंछते पोंछते पैदल आते जाते थे ,बडी मुश्किल से सत्यनारायनजी कि कथा ! या कभी कभी कोई विवाह के मौसम में दो चार विवाह करा देते थे| |नही तो पुरे समय मन्दिर में कलावा बाँधने से ही परिवार कि गुजर बसर होती थी |पर धीरे धीरे उन्होंने दान में मिली हुई चीजो को जबसे दोबारा उपयोग करना और न काम में आने वाली वस्तुओ को दुकानों में देना शुरू किया, दिन ही पलट गये |अच्छी सफेद धोती पहनकर स्कूटर पर जाना शुरू किया तो घर के बाहर यजमानो कि भीड़ ही लगी रहती |दो दो मोबाइल रखने पड़ गये |मंदिर में कलावा बाँधने के लिए एक असिस्टेंट रख लिया |श्रीमती तुलसी विष्णुप्रसाद भी एक से एक नई साडिया गहने पहने भजनों में जाती और ढोलक कि थाप पर जोर जोर से भजन गाती |
अब तो पंडितजी ने एक ज्योतिषी से गठबंधन कर लिया जितने भी ग्रहों के जाप हो सकते है ?वो सब ज्योतिषीजी यजमान को बता देते और पंडितजी के नाम का सुझाव दे देते |
यजमान को कहाँ इतनी फुर्सत थी ,?
एक के दो करने से? वो सीधे पंडितजी को कॉल करते और अग्रिम राशिः दे जाते. जाप और पूजा करने कि| पंडितजी कि तो चल पडी थी .|अब तो कुल मिलकर उनके पॉँच सहयोगी हो गये थे |
पडोसी शंकर प्रसाद और उनकी पत्नी पारवती दोनों स्कूल में शिक्षक शिक्षिका थे ,उन्हें भी लगने लगा ये सब छोड़कर पंडिताई शुरू कर दे तो अच्छा रहे आठवी पास पंडितजी ने कितनी उन्नति कर ली है |
आते जाते लोग कार को प्रश्न वाचक निगाहों से देखते और कभी कभी ?दिखने वाले पंडितजी से हाल चाल पूछकर चल देते |
आखिर शंकर प्रसाद ने पंडितजी को पूछ ही लिया ?
क्यों पंडितजी? ये कार यहाँ कैसे खडी है?
आने जाने वालो को चलने में कठिनाई होती है |जिनकी है उन्हें कह क्यों नही देते? कि अपनी गाड़ी ले जाये |
अरे नही भाई! ये तो अब यही रहेगी ये मेरी कार है | पंडितजी ने थोड़े रुआब से कहा --
आश्चर्य से शंकर प्रसादजी ने देखा? पंडितजी कि तरफ |
हाँ भाई मेरे वो यजमान है न? जिन्हें ओवर ब्रिज बनाने का ठेका मिला है, उन्होंने ही मुझे भेट में दी है |अभी चार दिन पहले तो भूमि पूजा करवाई है |
मेरी गाढ़ी कमाई कि है |आप ऐसे क्यों देख रहे है ?मैंने कोई रिश्वत में थोड़े ही ली है ?
शंकर प्रसादजी को अपनी पूरी शिक्षा डग्गम डग दिखाई देने लगी ............
आप सभी के प्रोत्साहन और मार्ग दर्शन से प्रेरित होकर एक लघु कथा पोस्ट कर रही हूँ |
"एक निर्धन ब्राह्मण "
पंडित विष्णु प्रसादजी के घर के सामने बिलकुल नई सी दिखने वाली कार पिछले दो दिनों से खडी थी |अधिकतर तो पंडितजी को हमेशा अलग अलग तरह कि कारों में आते जाते देखा है , जिन्हें भी पूजा करवाना वे ही आकर ले जाते|और समय पर घर छोड़ जाते |
गली के बाहर से हार्न बजता और पंडितजी अपनी सजी धजी वेशभूषा रेशमी धोती, रेशमी कुरते में हाथ में पोथियों का झोला लेकर निकल पड़ते |अडोसी पडोसी भी उन्हें देखने का लोभ संवरण नही कर पाते |कहाँ तो पंडितजी एक मटमैली धोती पहने हाथ में छाता लिए (जो कि कोई यजमान कि तेरहवी में दान में मिला था )पसीना पोंछते पोंछते पैदल आते जाते थे ,बडी मुश्किल से सत्यनारायनजी कि कथा ! या कभी कभी कोई विवाह के मौसम में दो चार विवाह करा देते थे| |नही तो पुरे समय मन्दिर में कलावा बाँधने से ही परिवार कि गुजर बसर होती थी |पर धीरे धीरे उन्होंने दान में मिली हुई चीजो को जबसे दोबारा उपयोग करना और न काम में आने वाली वस्तुओ को दुकानों में देना शुरू किया, दिन ही पलट गये |अच्छी सफेद धोती पहनकर स्कूटर पर जाना शुरू किया तो घर के बाहर यजमानो कि भीड़ ही लगी रहती |दो दो मोबाइल रखने पड़ गये |मंदिर में कलावा बाँधने के लिए एक असिस्टेंट रख लिया |श्रीमती तुलसी विष्णुप्रसाद भी एक से एक नई साडिया गहने पहने भजनों में जाती और ढोलक कि थाप पर जोर जोर से भजन गाती |
अब तो पंडितजी ने एक ज्योतिषी से गठबंधन कर लिया जितने भी ग्रहों के जाप हो सकते है ?वो सब ज्योतिषीजी यजमान को बता देते और पंडितजी के नाम का सुझाव दे देते |
यजमान को कहाँ इतनी फुर्सत थी ,?
एक के दो करने से? वो सीधे पंडितजी को कॉल करते और अग्रिम राशिः दे जाते. जाप और पूजा करने कि| पंडितजी कि तो चल पडी थी .|अब तो कुल मिलकर उनके पॉँच सहयोगी हो गये थे |
पडोसी शंकर प्रसाद और उनकी पत्नी पारवती दोनों स्कूल में शिक्षक शिक्षिका थे ,उन्हें भी लगने लगा ये सब छोड़कर पंडिताई शुरू कर दे तो अच्छा रहे आठवी पास पंडितजी ने कितनी उन्नति कर ली है |
आते जाते लोग कार को प्रश्न वाचक निगाहों से देखते और कभी कभी ?दिखने वाले पंडितजी से हाल चाल पूछकर चल देते |
आखिर शंकर प्रसाद ने पंडितजी को पूछ ही लिया ?
क्यों पंडितजी? ये कार यहाँ कैसे खडी है?
आने जाने वालो को चलने में कठिनाई होती है |जिनकी है उन्हें कह क्यों नही देते? कि अपनी गाड़ी ले जाये |
अरे नही भाई! ये तो अब यही रहेगी ये मेरी कार है | पंडितजी ने थोड़े रुआब से कहा --
आश्चर्य से शंकर प्रसादजी ने देखा? पंडितजी कि तरफ |
हाँ भाई मेरे वो यजमान है न? जिन्हें ओवर ब्रिज बनाने का ठेका मिला है, उन्होंने ही मुझे भेट में दी है |अभी चार दिन पहले तो भूमि पूजा करवाई है |
मेरी गाढ़ी कमाई कि है |आप ऐसे क्यों देख रहे है ?मैंने कोई रिश्वत में थोड़े ही ली है ?
शंकर प्रसादजी को अपनी पूरी शिक्षा डग्गम डग दिखाई देने लगी ............
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