Wednesday, September 30, 2009

"सुख की पाती" कहानी अन्तिम भाग




जब मै
शादी होकर इस घर में आई तो दो महीने बाद ही मुझे गाँव से शहर भेज दिया भेज दिया |किसी की पहचान से मुझे एक कन्या शाला में शिक्षिका के पद पर नौकरी मिल गई ,और शुरू हो गई मेरे विवाहित जीवन की और संघर्ष की शुरुआत |सुबह ११ बजे तक ९लोगो का खाना बनाना कपडे धोना बर्तन साफ करना और स्कूल जाना , बजे तक वंहा कन्याओ से माथा पच्ची करना फ़िर घर लोटकर फ़िर चूल्हे का साथी बन जाना छोटे मोटे घर के काम करना |
इसके साथ ही हमारे ससुर जी की चाची जो बुजुर्ग थी जिन्हें हमारी रक्षा के लिए हमारे साथ रहती थी उनका छुआ छूत का कार्यक्रम ,बिना प्याज लहसन का खाना बनाना ये सब भी उसमे शामिल होता ननदों का मूड होता तो वे काम में हाथ बँटाती अन्यथा पढाई का बहाना बनाकर कन्नी कट लेती |इसी सबमे जूझते हुए हर्ष का आगमन हुआ खूब खुशिया मनी ,कितु मै कभी दो पल उसे गोदी में लेकर नही बैठी उसकी पर दादी और समय समय पर गाँव से आकार दादी ने ही अपना अधिकार समझा |
हर्ष के बाबूजी तो बडो के लिहाज से उसे कभी गोद में भी नही ले पाए |इस बीच मुझे स्कूल से बी.एड .करने का आदेश हुआ इसके लिए मुझे शहर से बाहर जाना था, अब ज्वलंत प्रश्न ?सबको ये अहसास था की उसके बाद मेरी तनखा बढेगी |तो मुझे इजाजत दे दी गई ?
पर हर्ष दादियों के पास ही रहा मुझे मन मसोसकर जाना पडा हाँ ! तब तक मिली मेरे गर्भ में गई थी वो मेरे लिए खुशी की बात थी |और इसी खुशी के साथ बी.एड .कर मिली को गोद में लेकर लौटी उसी संसार में |वही चक्र चलता रहा लेकिन मैंने इसे अपना ध्येय बना लिया था और स्कूल के साथ ट्यूशन भी करने लगी हां, अब चूल्हे की जगह गैस ने ले ली थी तो मुझे थोडी सी सुविधा हो गई थी नंदे भी कॉलेज जाने लगी थी बडी दीदी की तो शादी भी हो गई थी छोटे देवर शहर से बाहर पढ़ने चले गये थे |बड़ी दादी भी चल बसी थी |एक बर्तन साफ करने वाली भी रख ली थी |लेकिन मुझे और ज्यादा काम करने की इच्छा होती |कभी कम से कोफ्त नही हुई |हर्ष के बाबूजी कहते भी; अब तुम्हे काम करने की जरूरत नही है अब तो सब ठीक चल
रहा है |किंतु मै और ज्यादा लड़कियों को ट्यूशन देने लगी |मेरे दोनों बच्चे बुआ औरचाचा के सानिध्य में रहने लगे |एक एक करके सभी नन्द देवरों की शादी हो गई मैंने भी अपने स्कूल के कार्यकाल में पदोन्नति ली कई सम्मान पाए|हर्ष के पापा भी अपने रिटायर्मेंट के करीब रहे थे |
हर्ष अपनी पढ़ाई में अव्वल रहा और आई .आई टीकरके गुडगाँव में नौकरी पर चला गया |
मिली ने भी अपनी पढाई के साथ संगीत की की शिक्षा जारी रखी |और फ़िर संगीत कला केन्द्र में शिक्षिका हो गई और अपने सहकर्मी के साथ शादी कर ली घर में बहुत हंगामा हुआ, पर मै अड़ गई और फ़िर धूमधाम से मिली और अरुण की शादी कर दी| जबपैत्रक सम्पति के हिस्से बंटवारे हुए तो मेरे हिस्से मेरी यही कर्म स्थली आईजो मेरी खट्टी मीठी यादो की साक्षी रही है;मैंनेउस घर में चूने सीमेंट की एक भी ईट नही जोड़ी,; और ही इन्हे जोड़ने दी |कभी कभी ये कहते भी तुम बहुत जिद्दी हो ;मेरे इस स्वभाव से इन्हे चिढ भी होती |उन दिनों जब घर में जब चारो और से खर्च की मांग होती ये मेरे लिए एक साडी लेकर आए थे ,कहने लगे तुम उन चार साडियों को पहनकर ही एक साल से स्कूल रही हो ,लोग कहेगे -जोशीजी अपनी पत्नी को क्या साडी भी नही लाकर दे सकते ?
पैदल स्कूल आती जाती हो; तांगे के पैसे नही दे सकता ;परन्तु एक साडी तो दे ही सकता हूँ |
कितु मेरे मन में क्रोध था; या पता नही क्या?मैंने इनकी दी हुई साडी नही पहनी |
शायद मै अपनी आवश्यकताओ से लड़ते लड़ते उनपर जीतने की आदि हो गई थी |
आज भी वो साडी वैसे ही मेरे सूटकेस में रखी है |कितनी ही नई साडिया है , वो साडी मेरे साथ सभी जगह घूमती है| मेरी आँख में आंसू गये |
शालिनी फ़िर सामने खड़ी है शायद वो सोच रही है ,इनको तो इतना सुख है जब जबान हिलाए तब सब कुछ हाजिर !
इन्हे तो मेरी तरह कोई काम भी नही करना पड़ता |साब और मैडम आगे आगे बिछते है इन्हे क्या दुःख है ?
उसने फ़िर पूछा ?
माजी आपने नाश्ता भी नही किया ?
कुछ नही बेटी आज मेरा मन नही है |
ये ले जा; और खिचडी चढ़ा दे केशव भी उठ जावेगा |
अच्छा माँजी कहकर वो चली गई
नाश्ते से मुझे वो दिन याद गये जब हर्ष पेट में था मुझे सुबह सुबह उलटी होती थी ;और भूख लगती थी चूल्हे पर रोटी सेकते सेकते उबकाई आती थी |ये तो फेक्ट्री चले जाते थे रोटी खाने का मन नही होता था; घर में कोई पूछता नही था |दादीजी अपनी पूजा में रहती थी दीदी लोग को कहाँ समझता था ?तब पास में रहने वाली चचेरी जिठानी एक कप दही चीनी दे जाती थी, तो वो मुझे अम्रत लगता था क्योकि घर में तो सब्जी रोटी दाल ही मुश्किल से जुटाई जाती थी तो दही की कौन कहे ?
आज इस घर में बीसियों चीजे पड़ी है अचला, हर्ष को हाथ में देती हूँ पर उनको खाने का समय नही है |
पता नही आज मुझे क्या सूझी ?मै वो साडी निकलकर देखने लगी ,फ़िर अचनाक फोटो अलबम निकालकर देखने लगी |
शालिनी आकर पूछने लगी ?
माजी नीचे से सब्जी ले आऊ ?फ़िर मुझे एल्बम देखते हुए कहने लगी ?माँ जी बाबूजी कितने स्मार्ट लग रहे है बाबूजी को क्या हुआ था ?
उन्हें कहाँ कुछ भी तो नही हुआ था ?जीवन में कभी बीमार भी नही पड़े ही कभी किसी से एक गिलास पानी ही माँगा|
फेक्ट्री से घर फ़िर ओवर टाइम ?पुरे परिवार की जरूरते पूरी करना भाई बहनों के लिए अपना जीवन लगा दिया ,हा भाइयो ने भी उनको उतना ही सम्मान दिया और उनकी लाज रखी |आज सब अपने अपने घर सुखी है |अपनी पैत्रक जायजाद का विस्तार किया खेत खरीदे एक इंच भी जमीन नही बेचीं |एक दिन हमने शाम का खाना खाया प्रायः सबके फोन जाते बाते करते संतुष्ट हो जाते ,उस दिन हर्ष का फोन आया पापा मेरा प्रमोशन हो गया है; मुझे मुंबई जाना होगा
कम्पनी फ्लैट ,कार सब सुविधाए देगी ये बहुत खुश हो गये इन्होने मुझे आवाज दी मैंने हर्ष से बात की फोन रखा ही था और देखा? ये सीना दबाये बैठे थे मैंने इन्हे लिटाया डॉ को बुलाया तब तक तो ये जा चुके थे रिटायर होने में दो महीने बाकि थे सबको सुखी देखकर मानो इनकी आत्मा तृप्त हो गई थी |हर्ष को आने में १२ घंटे लगे |हर्ष के साथ रहने की तमन्ना लिए ही चले गये |
शालिनी अब जा तू सब्जी ले |
मैंने अल्बम बंद किया इतने में केशव भी उठकर मेरे पास गया अपनी मीठी जुबान से उसने' दादी 'कहा तो मैंने सारा अतीत भूलकर उसे सीने से लगा लिया |
मेरे इस असीम सुख की कोई कीमत है क्या?
रात ही बड़ी का भाभी का फोन आया था? दीदी हमारे पास थोड़े दिन रहने जाओ जिंदगी भर हाय हाय करती रही !अब तो आराम से रहो मै जानती हूँ, पहले भी उन्होंने मेरी छोटी बहन शानू को कहा था - दीदी के बहू बेटा दोनों ही इतना कमाते है ?
क्या वो लोग नौकर नही रख सकते क्या ?
जो दीदी को भी इस उमर में खटना पड़ता है ?इन्ही भाभी के घर एक बार बच्चो को गर्मी की छुट्टियों मे लेकर गई थी तो हर्ष मिली को सुबह सुबह चाय देती जबकि अपने और शानू के बच्चो को गिलास भर दूध देती क्योकि शानू बडे घर की बहू थी |हर्ष और मिली को तो चाय भी मिली होती तो वे कुछ मांगते अपने पिता की तरह ,लेकिन मै ये अपमान सहन कर सकी; उसके बाद विवाह के मौको को छोड़कर कभी मायके मे पाँव नही रखा |रात हंसकर फोन पर कह दिया हाँ भाभी जरुर आउंगी |
केशव मेरी गोद मे बैठा खेल रहा था ,इतने मे शालिनी भी सब्जी लेकर गई .......शालिनी आज शाम को पाव भाजी बनायेगे | थोडी तयारी कर लेते है |सब्जिया वगैरह काट करके रख लेते है , तुम्हारी मैडम को बहुत पसंद है !आते जाते थक जाती है एक तो दिन भर काम;ऊपर से ट्रेफिक वो चाहकर भी नही बना पाती तुम मटर छीलो तब तक मै केशव को खिचडी खिलाती हूँ और मैंने केशव को गोद मे उठा लिया ओर केशव खुश होकर कहने लगा मै दादी के हाथ से खिचरी (खिचडी ) खाऊँगा |..................
shobhana chourey

17 टिप्पणियाँ:

राज भाटिय़ा said...

शोभना चौरे जी , कहानी पढी.... अपनी सी लगी, समय तो बीत जाता है, लेकिन यादे रह जाती है, ओर कोई कोई याद तो गहरे घाव छोड जाती है, जो समय असमय हमे चुभते रहते है... कहानी बहुत ही अच्छी लगी, शायद यह कहानी हम मै से कईओ की होगी.
धन्यवाद

Asha Joglekar said...

Aapka aaj aapke pota potee ahain. unke tutlaee bolon se khush rahen to isse badi khushee aur kya hogee. humare jamane aur aajke jamane men bahut fark haia par ye har peedhi ko zelna padta hai.
Aapkee kahanee kee yehee khasiyat hai ki wah apnee see lagtee hai.

रश्मि प्रभा... said...

bahut apne lage sare patra,sari bhawnayen.......waqt ! yun hi chalta jata hai n

निर्मला कपिला said...

ेआज पूरी कहानी इकठी पढी । मुझे लगता है ये हमारे जमाने की हर औरत की कहानी है जिसे आपने अपनी शैली और शिल्प से सजाया और अनुभव से कथानक बुना बहुत सुन्दर कहानी है। बधाई

अजित गुप्ता का कोना said...

जब से पीढियों के अन्‍तराल में संस्‍कृति का अंतराल आया है तभी से यह परिवर्तन है। पहले हम सबके लिए जीते थे लेकिन अब हम केवल अपने लिए हैं। इसी कारण व्‍यक्तिवादी सोच हावी होती जा रही है। इसलिए यह कहानी किसी एक की नहीं है, शायद हर घर की है।

Urmi said...

बहुत अच्छी लगी आपकी लिखी हुई कहानी! पढ़कर ऐसा लगा कि किसी न किसीकी ज़िन्दगी में अक्सर ऐसा होता है और आपने बहुत ही सुंदर रूप से प्रस्तुत किया है! वक्त तो किसीके लिए नहीं रूकता पर वो बीते हुए वक्त यादें बनकर रह जाती हैं ! हम उन यादों को संजोग करके रखते हैं! बढ़िया लगा शोभना जी!

दिगम्बर नासवा said...

आस पास बिखरे हुवे पात्रों से सजी संजीदा कहानी है ........ सुन्दर शिल्प में घड़ा है आपने .........

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

bahut hi achchi kahani hai...... kuch palon ke liye kho sa gaya tha........

P.N. Subramanian said...

लोगों की बात पढ़कर तो लग रहा है एक नया सीरियल बन जायेगा. "कहानी घर घर की" की तर्ज पर. बड़ी प्रसन्नता हुई. सुन्दर समापन रहा. आभार..

hem pandey said...

इस भावुकता भरी कहानी के लिए साधुवाद. पूरी कहानी आज ही पढी जिससे तारतम्य भी नहीं टूटा.

Apanatva said...

जीवन को छूती कहानी |
जीवन मे कुछ घटनाए भूले नहीं भूलती और हमें बहुत कुछ सीखा ही जाती है |

अमिताभ श्रीवास्तव said...

sach hi to he, jeevan ki ek yah bhi sachchaai he, kahani lekhan me dharapravaah ka hona jaroori rahta he, aapme vah khoobi bhi he/ achchi tarah se shbdo ko buna hua he/ patro ko unki jagah bhi behatar dhhng se di gai he/ kulmilakar prernadaai kahaani he/

ज्योति सिंह said...

bahut sundar kahahi jo lagbhag har aurat ki apni hai .

BrijmohanShrivastava said...

सुख की पाती का अन्तिम भाग ,दुर्भाग्य से पूर्व के पाठ से वंचित रहा ।पहला पद ग्रामीण परिवेश और संयुक्त परिवार ,प्राचीन संस्कार छुआ छूत ननदों का मूड ,बडो का लिहाज, प्रेम विवाह पर आपत्ति ,। मिली और हर्ष वाबत जिक्र पूर्व पाठ में रहा होगा ।कहानी ,आत्म कथ्य जैसी

sm said...

very nice story
like it

मुकेश कुमार तिवारी said...

शोभना जी,

कहानी "सुख की पाती" पढ़ते हुये अपने आस-पास के दृश्य खिंचते रहे यूँ लगता रहा कि यह सब कुछ देखा या अनुभव किया सा है।

हर्ष और मिली के साथ बड़ी भाभी क व्यवहार जरूर भावुक कर गया शायद अंतर्मन में कहीं कुछ ना कुछ तो ऐसा है ही कि पिताजी की हैसियत से तय होता था हमारा वुजूद कभी कभी तो गिने भी नही जाते थे।

एक अच्छी और कसी हुई कहानी, जिसमें नायिका का केशव को सम्हालने और इतर गृहकार्यों में खुद को व्यस्त कर लेना अंतिम परिणिती नही हो सकती लेकिन खाली बैठने और इधर-उधर की बातों में समय जाया करने से बेहतर है।

सादर,


मुकेश कुमार तिवारी

kshama said...

फिर एक बार ऐसा लगा जैसे कोई पास बैठ के अपनी बात बड़े प्यारसे सुना रहा हो ..आपके blog पे आने का एक अलग अनुभव होता है ...लगता है , वाकई एक गृहिणी और एक शिक्षिका एक साथ देख रहे हों ..एकचलत चित्र की तरहसे...