Sunday, October 04, 2009

एक निर्धन ब्राह्मण " लघु कथा"

आप सभी लोगो का ह्रदय से धन्यवाद करती हूँ जो आपने मेरी लिखी कहानी "सुख की पाती "को पसंद किया और अपने अमूल्य विचारो से उसे सम्मान दिया |ये कहानी मैंने तीन साल पहले लिखी थी |
आप सभी के प्रोत्साहन और मार्ग दर्शन से प्रेरित होकर एक लघु कथा पोस्ट कर रही हूँ |


"एक निर्धन ब्राह्मण "

पंडित विष्णु प्रसादजी के घर के सामने बिलकुल नई सी दिखने वाली कार पिछले दो दिनों से खडी थी |अधिकतर तो पंडितजी को हमेशा अलग अलग तरह कि कारों में आते जाते देखा है , जिन्हें भी पूजा करवाना वे ही आकर ले जाते|और समय पर घर छोड़ जाते |
गली के बाहर से हार्न बजता और पंडितजी अपनी सजी धजी वेशभूषा रेशमी धोती, रेशमी कुरते में हाथ में पोथियों का झोला लेकर निकल पड़ते |अडोसी पडोसी भी उन्हें देखने का लोभ संवरण नही कर पाते |कहाँ तो पंडितजी एक मटमैली धोती पहने हाथ में छाता लिए (जो कि कोई यजमान कि तेरहवी में दान में मिला था )पसीना पोंछते पोंछते पैदल आते जाते थे ,बडी मुश्किल से सत्यनारायनजी कि कथा ! या कभी कभी कोई विवाह के मौसम में दो चार विवाह करा देते थे| |नही तो पुरे समय मन्दिर में कलावा बाँधने से ही परिवार कि गुजर बसर होती थी |पर धीरे धीरे उन्होंने दान में मिली हुई चीजो को जबसे दोबारा उपयोग करना और न काम में आने वाली वस्तुओ को दुकानों में देना शुरू किया, दिन ही पलट गये |अच्छी सफेद धोती पहनकर स्कूटर पर जाना शुरू किया तो घर के बाहर यजमानो कि भीड़ ही लगी रहती |दो दो मोबाइल रखने पड़ गये |मंदिर में कलावा बाँधने के लिए एक असिस्टेंट रख लिया |श्रीमती तुलसी विष्णुप्रसाद भी एक से एक नई साडिया गहने पहने भजनों में जाती और ढोलक कि थाप पर जोर जोर से भजन गाती |
अब तो पंडितजी ने एक ज्योतिषी से गठबंधन कर लिया जितने भी ग्रहों के जाप हो सकते है ?वो सब ज्योतिषीजी यजमान को बता देते और पंडितजी के नाम का सुझाव दे देते |
यजमान को कहाँ इतनी फुर्सत थी ,?
एक के दो करने से? वो सीधे पंडितजी को कॉल करते और अग्रिम राशिः दे जाते. जाप और पूजा करने कि| पंडितजी कि तो चल पडी थी .|अब तो कुल मिलकर उनके पॉँच सहयोगी हो गये थे |
पडोसी शंकर प्रसाद और उनकी पत्नी पारवती दोनों स्कूल में शिक्षक शिक्षिका थे ,उन्हें भी लगने लगा ये सब छोड़कर पंडिताई शुरू कर दे तो अच्छा रहे आठवी पास पंडितजी ने कितनी उन्नति कर ली है |
आते जाते लोग कार को प्रश्न वाचक निगाहों से देखते और कभी कभी ?दिखने वाले पंडितजी से हाल चाल पूछकर चल देते |
आखिर शंकर प्रसाद ने पंडितजी को पूछ ही लिया ?
क्यों पंडितजी? ये कार यहाँ कैसे खडी है?
आने जाने वालो को चलने में कठिनाई होती है |जिनकी है उन्हें कह क्यों नही देते? कि अपनी गाड़ी ले जाये |
अरे नही भाई! ये तो अब यही रहेगी ये मेरी कार है | पंडितजी ने थोड़े रुआब से कहा --
आश्चर्य से शंकर प्रसादजी ने देखा? पंडितजी कि तरफ |
हाँ भाई मेरे वो यजमान है न? जिन्हें ओवर ब्रिज बनाने का ठेका मिला है, उन्होंने ही मुझे भेट में दी है |अभी चार दिन पहले तो भूमि पूजा करवाई है |
मेरी गाढ़ी कमाई कि है |आप ऐसे क्यों देख रहे है ?मैंने कोई रिश्वत में थोड़े ही ली है ?
शंकर प्रसादजी को अपनी पूरी शिक्षा डग्गम डग दिखाई देने लगी ............

19 टिप्पणियाँ:

Dr. Shreesh K. Pathak said...

अच्छी चोट लगाई आपने 'निर्धन ब्राह्मण' को. इस प्रवृत्ति की आलोचना होनी ही चाहिए..लघु-कथा अपने उद्देश्य में सफल है ....बधाई..

Unknown said...

wah
brahmin v bhagwan ko khush kerne wale kerane wale sare aam riswat ka ye jo prachalan samskar mein daal rehe hai ki fallan rupaiya ka prasad chadhane per aap ka karya ho jayega ...ye pravarti esi tarah dabe paawn jan samskar mein es tarah ghar ker jati hai ki riswat ki ek parampra chalne lagti hai.....aapki ye chotti si kahani bahut satik prahar ker gayi...badhai ...

रश्मि प्रभा... said...

nirdhan brahman ke kya kahne !

राज भाटिय़ा said...

बेचारा 'निर्धन ब्राह्मण' अरे नही..बेचारा ओवर ब्रिज कहानी बहुत सुंदर लगी.
धन्यवाद

ज्योति सिंह said...

maza aa gaya padhkar saath hi bharpur aanand bhi liya .kya jalwe hai panditai me .shikshaa bhi fiki par gayi .ati uttam vyag ki tasvir .saadgi aur sundarata khasiyat hai aapki lekhan shaily ki .kal apne mitr se uske ghar par aapki rachana ki tarif bhi kar rahi thi jo aapke blog se bhi judi hui hai aur usne bhi sahmati di .

वाणी गीत said...

जब सभी व्यापर लाभ की दृष्टि से ही किये जा रहे हैं तो बेचारे गरीब ब्राह्मण ने क्या गलत किया ...पूजा पाठ कराना उसका व्यापार ही तो है ..तस्वीर के दुसरे रुख को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए ...
जहाँ तक शिक्षा की बात है ...इसका बाजारीकरण भी हो ही चुका है ...ऐसे कितने शिक्षक होंगे जो बिना किसी लाभ के अपनी शिक्षा का प्रकाश फैलाते हैं ..!!

दीपक 'मशाल' said...

aapki likhi laghukatha ho ya kavita ya kuchh aur, inhen padhna appne aap me ek tajurba lena hai.

वन्दना अवस्थी दुबे said...

बहुत सुन्दर और यथार्थवादी लघुकथा.

शरद कोकास said...

बढ़िया कथा है ओवर्ब्रिज के ठेकेदार ने धर्म के ठेकेदार को उपहार दिया , आखिर भ्रष्टाचार् की कमाई का भागीदार भी भ्रष्टाचारी ही हुआ ना

Alpana Verma said...

आप की कहानियां समाज के बदलते स्वरुप पर आधारित होती हैं यह भी पंडितों और पूजा के बदले रूप यानि उनके आधुनिकीकरण का एक उदाहरण है.अब कलेवा बाँधने के लिए assistant रखना !..खूब रहा..

वहीँ गठबंधन लगभग हर क्षेत्र में हो गया है फिर यह क्षेत्र क्यूँ छूटे..?
प्रहार करती हुई कथा एक सवाल उठा रही है ...अब मूल्यों का इस से ज्यादा और क्या पतन होगा?
bahut achchhee kahani hai.
[main ne aap ki pichhali kahaniyan poori nahin padhin -unhen bhi padh kar fir wahan comment likhungi]

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

सच के करीब है यह लघुकथा।
करवाचौथ और दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं।
----------
बोटी-बोटी जिस्म नुचवाना कैसा लगता होगा?

sandhyagupta said...

'Arth puja' sabse badi puja.

Naveen Tyagi said...

bahut achchhi kahani hai. ese hi likhte rahiye

Naveen Tyagi said...

bahut achchhi kahani hai. ese hi likhte rahiye

Mumukshh Ki Rachanain said...

स्वार्थ का महागठबंधन.

कहानी काफी प्रभावशाली रही.

प्रगति इसे ही अब तो सभी मानाने लग गए.

अब इसी तरह की प्रक्टिकल कक्षाओं की कोचिंग प्रारंभ होनी चाहिए. पुरातन सिक्षाएं व्यर्थ सी अप्रगातिकारी सी दिखने लगी है, चलो कुछ नया हो जाये............प्रगति के नाम पर तो सब चलता है...........

चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com

Rajeysha said...

दुनि‍या कि‍सको चालाक नहीं बना देती ?

देवेन्द्र पाण्डेय said...

मैने कोई रिश्वत में थोड़े ही ली है
गाढ़ी कमाई के इस रूप ने मन मोह लिया।

Anonymous said...
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Anonymous said...
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