Wednesday, January 13, 2010

कैसा दान ?

अभी १५ दिन पहले चन्द्र ग्रहण था बस दूसरे दिन सुबह -सुबह ही दान लेने के लिए महिला स्वीपर( अंग्रेजी लिए क्षमा करे ) का बेल पर बेल बजाना शुरू और दरवाजा खोलते ही जोर जोर से बोलना जारी था :दान दे दो ग्रहण छूटने का ?
मैंने कहा - अभी तो उठे है जरा पहले कचरा ले लो बाहार कि सफाई कर दो फिर लेजाना |
आज हम कचरा नहीं उठायेगे और न ही झाड़ू लगायेगे |उसने तपाक से कहा -
अब मै अपने क्रोध को नहीं दबा सकती थी मैंने भी कह दिया फिर हम भी आज दान नहीं देगे ,कल ले जाना |
मन में तो मेरे ये आ रहा था कि आज क्या ? कल क्या? कभी भी इसको दान नहीं दू ?
दान मांगने से थोड़ी मिलता है? ये तो सरासर भीख मांगना ही हुआ |
वह दोनों हाथ कमर पर रखकर आंखे मटकाकर बोली -जड़ी से ५१ रूपये दे दो |
मैंने कहा - दान में तो कपडा अनाज देते है, रुपया तो तो नहीं देते ?
हम कपड़ा अनाज, वजन उठाकर नहीं ले जा सकते ?
मै सकते ?में थी क्या करू ?देती हूँ तो मेरी हार होगी ?नहीं दूँगी तो तो मुझे अपने बचपन के वो सारे टोटके याद गये जब भी बोर्ड कि परीक्षा देने जाते दादी कहती बेटा मेहतरानी अगर सुबह सुबह दिख जाये तो अच्छा शगुन होता है |अब सुबह सडको कि तो सफाई होनी ही होती है ? तो तो मेहतरानी तो दिखेगी ही ?साथमें दादी कुछ रेजगारी भी दे देती और कहती
अगर दिख जाये तो उसे दे देना तब परचा अच्छा जाने कि उम्मीद में बड़ी श्रद्धा से उसे दे देते |(ये बात और है कि जब ढंग से पढाई ही नहीं कि तो मेहतरानी भी क्या करती ?)आज उस श्रद्धा कि जगह विद्रोह ने ले ली थी |इसके पीछे इन लोगो का लालच, इनकी ढिठाई , इनकी अकर्मण्यता मुझे पीछे खींच रही थी |सरकार से तनखा ये पाते है ,फिर भी हर घर से १०० रुपया महीना लेते है खुद काम नहीं करते अपनी जगह दुसरो को मजदूरी पर रखते है सबके इलाके बंटे होते है |रविवार के आलावा हफ्ते में और दो दिन इनका जन्म सिद्ध अधिकार है |और फिर हरेक त्यौहार पर छुट्टी ,इनाम |
मै कुछ और उसे कहती इसके पहले ही हमारे पड़ोसी ने उसे बुलाकर फटाफट ५१ रूपये दिए और दरवाजा बंद कर लिया
वो फिर मेरे सामने खड़ी हो गई मै खीज कर अन्दर गई २१ रूपये निकलकर उसे दे दिए 1उसने मुझे बड़ी ही हिकारत कि नज़र से देखा और अपने छोटे से पर्स में नोट ठूंसकर रखती हुई चली गई |
कल फिर संक्रांति है मै आज से चिंता में हूँ १०० रूपये किलो तिल ,५० रूपये किलो गुड ,100 रूपये किलो कि दाल और ५० रूपये किलो के चांवल कितनी खिचड़ी मंदिर में दू ? कितनी ब्राहमण को ?कितनी स्वीपर को और कितनी संघ के लोगो को |
एक जमाना था जब गाँवो में अनाज खेत से घरो में आता था ,नया गुड बनता था दाले घर कि होती थी भरपूर धान होता था भरपूर टोकनियाँ भरकर श्रद्धा से दान दे दिया जाता था |ब्राहमण का आसरा भी यही होता था क्योकि वह घर घर पूजा पाठ करवाकर अपने परिवार का पेट भरता था उसकी जीविका का अन्य कोई साधन नहीं था |आज जब पंडित अन्य कई माध्यम से जीविका अर्जन करता है मन्दिरों से उन्हें उचित तनखाह मिलती है |फिर दान का क्या ओचित्य ?
उसके बाद फिर से १५ दिन में सूर्य ग्रहण
मुझे सामना करना है फिर से चिंता में हूँ ?कि मुझे सामना करना है स्वीपर का ,ढोल वाले का,बेन्ड बजे वाले का ,
हिजडो का ,घर में काम करने वाली सहयोगियों का ?
और इन सबके बीच मेरी जोर शोर से " हल्दी कुमकुम"का आयोजन का बजट में कटोती कि भेंट चढ़ जाता और चाहकर भी सिर्फ छोटे छोटे दीपक ही स्वेच्छा से दे पाती और तिल गुड खाओ और मीठा मीठा बोलो सिर्फ यही कह पाती ....

13 टिप्पणियाँ:

Apanatva said...

ise sthitee me parivartan nahee aane wala .
aajkal mehnat karana nahee chahte aur hath felane me inhe sharm bhee nahee aatee .
Happy Makar Sankranti .

Anonymous said...

china mein waiter tip lene se bhi ghabraataa hai, hum log democracy ke laayak nahin hain

दीपक 'मशाल' said...

ye vratant ghar ghar ki kahani hai aunti lekin jis tarah aapne likha vaise likhna aasan nahin.... bahut hi rochak laga... shubh sankranti.. Jai Hind..

Apanatva said...

aapka sath accha laga .ek aur ek to gyarah ho jate hai. ha na .....?

मथुरा कलौनी said...

बहुत ज्‍वलंत विषय उठाया है आपने।
बस देते जाइये।

हरकीरत ' हीर' said...

गज़ब है ग्रहण का भी दान मांगने आ जाते हैं ....??

शुक्र है यहाँ अभी तक तो ऐसा नहीं है .....!!

वन्दना अवस्थी दुबे said...

शोभना दी, ये सब पुरानी मान्यताओं की देन है.जाते-जाते जायेंगीं. अभी तो बस दान देते जाइये.

देवेन्द्र पाण्डेय said...

मेरा विचार थोडा भिन्न है.

विकराल मंहगाई और भौतिक आवश्यकता ने हमें इतना जकड़ लिया है कि हम कभी-कभी छोटे-छोटे मगर अत्यधिक कठिन काम करने वाले का, गलत उपहास भी कर देते हैं.

हम उन्हें देते ही कितना हैं! इसके बदले वे हमारी गंदगी भी साफ करते हैं. वे वो कम करते हैं जो हम नहीं कर पाते, कर सकते तो निसंदेह उन्हें कभी नहीं पूछते.

हम चाहते हैं कि मंदिर हो मगर पुजारी को दान करने से हिचकते है ! क्यों!! या तो नास्तिक बन जाओ, मंदिर की कामना भी मत करो या पुजारी को दान श्रद्धा से करो. सभी पुजारी राजकीय अनुदान नहीं पाते.

दान श्रद्धा से ही किया जाना चाहिए. जबरदस्ती कभी किसी को कुछ भी नहीं देना चाहिए. यह तो रंगदारी हुयी. ईश्वर रंगदारी नहीं मांगता.

अमिताभ श्रीवास्तव said...

aajkal 'DAAN' ko aap ULTA kar ke hi dekhe to behatar he yaani 'NDAA' yaani 'NAA DE'/

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

आपने बहुत सशक्त शब्दों में दान कि चिंता व्यक्त की है.... सच है कि ये लोग दान नहीं ऐसे मांगते हैं जैसे उनका हक हो....लेख बहुत अच्छा है.

श्याम जुनेजा said...

बहुत सुन्दर! लेकिन इसके आगे भी चिंतन की सख्त जरूरत है क्या यही सब चलते रहना चाहिए या कि कोई और भी विकल्प हो सकता है

ज्योति सिंह said...

vandana ji ne bahut achchhi baate kahi saath hi bahut hi achchhi rachna ,jeevan se judi baaton ko itni saralta se aap kah leti hai ki padhkar hame bharpur aanand milta hai .

rashmi ravija said...

सच,हमसे ये पुरानी प्रथाएं छोड़ते भी नहीं बनतीं ...और इनका यू रौब से मांगना नागवार भी गुजरता है...और पर्स पर भी असर पड़ता है....चारो तरफ से घिरा है ये मध्यम वर्ग