Wednesday, November 24, 2010

" यज्ञ की समिधा ,नैवेध्य " दादा रामनारायण उपाध्याय की दो रचनाये



अपने ५० वर्षो के लेखन मे दादा ने व्यंग्य ,ललित निबंध ,संस्मरण ,रिपोर्ताज ,रूपक लोक साहित्य और गाँधी साहित्य पर विशेष कार्य किया आदरणीय दादा को सन १९९१ में तत्कालीन राष्ट्रपतिजी व्यंकटरमण द्वारा "पद्मश्री "अलंकरण प्रदान किया गया |
अब तक दादा कि ४० पुस्तके प्रकाशित |
प्रस्तुत कविताये उनके एकमात्र काव्य संग्रह " क्रोंच कि चीख " १९९५ से साभार है |

"यज्ञ की समिधा "

मैंने कभी यज्ञ नहीं किया ,
मै स्वयम यज्ञ कि समिधा हूँ |
मैंने कभी गंगा नहीं नहाया ,
मेरे शरीर से
पसीने कि गंगा यमुना बहती रहती है |
मैंने कभी उपवास नहीं किया
मै स्वयम भूखा हूँ |
मैंने कभी दान नहीं दिया ,
मेरा शरीर झाड़े गये तिल्ली(तिल ) के ,
खोखले डंठल कि तरह खड़ा है |
मैंने कभी कलम नहीं चलाई,
मुझपर कलम चलाकर ही
वे अपनी दुकाने चला रहे है |
मैंने कभी सेवा नहीं की
मेरी सेवा के नाम पर
वे सत्ताधीश बने बैठे है |
मैंने कभी भोज नहीं किया ,
हर भोज में
रक्त की गंध आती है |

"नैवेध्य"
फुल्के की तरह
रात के काले
तवे पर
उलटने पलटने के पश्चात् ,
दिन की भट्टी में सिककर
जिस जिन्दगी पर
दाग नहीं लगता ,
वही भगवान को
नैवेध्य
लगाने के काम
आती है |
-रामनारायण उपाध्याय







23 टिप्पणियाँ:

kshama said...

Behad sashakt rachanaon se aapne parichay karwaya!

shikha varshney said...

दोनों रचनाये बहुत अच्छी हैं.आभार.

प्रवीण पाण्डेय said...

आत्म के आलोक से उत्पन्न दोनों कवितायें। हर पंक्ति विचार उड़ेलती हुयी।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

दोनों ही रचनाएँ हवन करती सी ....खुद को होम किया तभी ऐसी कविताओं ने जन्म लिया ...


इन कविताओं को पढवाने के लिए आभार

अनामिका की सदायें ...... said...

दोनों रचनाये ही बहुत जबरदस्त हैं.विचारणीय . शुक्रिया हमें पढाने के लिए.

अमिताभ श्रीवास्तव said...

सच तो यह है कि हम दादा की इतनी बेहतरीन रचना पर अपनी छोटी सी बुद्धि लगाकर कोई कमेंट कैसे कर सकते हैं? यह हमारे लिये सूरज को दिया दिखाने जैसा है। उन्हें नमन और आपसे निवेदन कि और भी इस तरह की रचनायें प्रस्तुत करें ताकि हमारी रचनात्मकता को प्रकाश मिलता रहे। दिशा मिलती

वन्दना अवस्थी दुबे said...

मैंने कभी यज्ञ नहीं किया ,
मै स्वयम यज्ञ कि समिधा हूँ |
क्या बात है!! बहुत बहुत आभार इतनी सुन्दर रचनायें पढवाने के लिये.

डॉ. मोनिका शर्मा said...

बहुत सुंदर विचारों की बानगी हैं रचनाएँ.... .... पढवाने के लिए आभार .....

Alpana Verma said...

पद्मश्री रामनारायण उपाध्याय जी की दोनों कवितायेँ मन को झंझोड का रख देने वाली हैं.
दोनों में अभिव्यक्ति बहुत ही जबरदस्त है..
खास कर पहली कविता में तीखे कटाक्ष सोच को पैना करते हैं.

vandana gupta said...

ज़बर्दस्त रचनायें पढवाने के लिये आभार्।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

आपकी इस पोस्ट का लिंक कल शुक्रवार को (२६--११-- २०१० ) चर्चा मंच पर भी है ...

http://charchamanch.blogspot.com/

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चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

एक महान विभूति से परिचय करवाने का आभार! उनकी रचनाएँ कालजयी हैं!! बहुत छोटा पाता हूँ उनके लिखे पर कुछ कहने के लिए,सिवा नतमस्तक होने के कोई प्रतिक्रिया नहीं!!

शोभना चौरे said...

आप सभी का ह्रदय से आभार |
@अमिताभजी मै जरुर कोशिश करुँगी दादा की और रचनाये पोस्ट करने की |धन्यवाद |

ZEAL said...

.

ऐसी उम्दा सोच विरले ही किसी की होती है । दादा रामनारायण को मेरा नमन एवं इस उत्कृष्ट रचना को पढवाने के लिए आपका आभार।

.

दिगम्बर नासवा said...

बहुत ही प्रभावी रचनाये हैं ... शाशाक्त ... लाजवाब ... आपका बहुत बहुत शुक्रिया .....

रंजना said...

अंतर्मन आलोकित करती,प्रकाश बिखेरती अद्वितीय कवितायें...

आभार पढवाने के लिए...

अनुपमा पाठक said...
This comment has been removed by the author.
अनुपमा पाठक said...

सशक्त रचनाओं से परिचय कराने हेतु आभार!

रचना दीक्षित said...

दोनों रचनाये बहुत विचारणीय हैं. आभार

Dorothy said...

उजासमयी, मर्मस्पर्शी रचनाएं पढ़वाने के लिए आभार.
सादर,
डोरोथी.

दीपशिखा वर्मा / DEEPSHIKHA VERMA said...

मैंने कभी कलम नहीं चलाई,
मुझपर कलम चलाकर ही
वे अपनी दुकाने चला रहे है |
मैंने कभी सेवा नहीं की
मेरी सेवा के नाम पर
वे सत्ताधीश बने बैठे है |
मैंने कभी भोज नहीं किया ,
हर भोज में
रक्त की गंध आती है |

waah, bahut acchhi lagi !

Asha Joglekar said...

बहुत ही जबरदस्त हैं दोनो ही रचनायें । नैवेद्य बहुत बढिया ।

अमिताभ श्रीवास्तव said...

behatreen