Wednesday, February 05, 2014

उजाले की ओर

अभी दो दिन पहले द्वितीया तिथि में चाँद एक बारीक़ लकीर सा अपना सोंदर्य बिखेर रहा था . तभी मन में ये विचार आये।


चाँद ने हसिये (दराती )का रूप धरा
सूरज ने बादलों में अपने को ढंका
प्रभात कि बेला में धुंध ने अपना राग छेड़ा
गोधूलि बेला में ,उड़ती रज से अंधकार हुआ
बता ऐ उजाले तुझे  मैं कहाँ  पाऊ ?

(चित्र गूगल से साभार )


3 टिप्पणियाँ:

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

क्या बात कही है दीदी! लेकिन असली उजाला तो तब मिलेगा, जब शिक्षा की दराँती/हँसिए से अज्ञानता का अन्धकार कटेगा! है ना?

वाणी गीत said...

उजाले को ग्रहण लगा है। चीर कर निकलेगा अँधेरे को जरुर!

प्रवीण पाण्डेय said...

कम उजाले में भी जीवन के दृश्य छिपे रहते हैं, हम अपने निहितार्थ ढूँढ लें।