Thursday, July 23, 2020

नदी

नदी
एक नदी थी अपनी,
कलकल बहती
लहराती ,इठलाती
दर्पण सी पारदर्शी
प्यास बुझाती,
भूख मिटाती
नाव  को सहारा बनाती
किनारों के मिलने का ,
न जाने !
कब ?
वो सरकारी हो गई
पहले रेत निकाली गई
फिर बिजली के नाम
सूखा दी गई
फिर दिखावे में
भर दी गई
धर्म के नाम पर
पूजी भी गई
और भर गई 
जल से नहीं!
व्यापार के
अवशेषों से
अब न प्यास
बुझती नभूख मिटती
कभी सबकी होती,
नदी
आज चंद
निजी हाथों में
सौंप दी गई।
💐💐💐💐
शोभना चौरे

0 टिप्पणियाँ: